सम्पादकीय

समावेशी विकाससे समृद्ध राष्ट्रका निर्माण


 डा. जीतेन्द्र कुमार डेहरिया

आज हम कोरोनाके उस दौरसे गुजर रहे हैं, जहां अर्थव्यवस्थाका हर क्षेत्र गम्भीर रूपसे प्रभावित हुआ है। जिसका सम्पूर्ण मानव जीवनपर कई रूपोंमें गम्भीर असर पड़ा है और विशेष रूपसे आम आदमीपर जिसे हम न आंकड़ोंमें और न शब्दोंमें व्यक्त कर सकते हैं। आज जीवनकी सभी आशाएं और आकांक्षाएं धीर-धीरे खत्म हो रही हैं। जीवन घरकी चार दिवारीमें सिमटकर रह गया है। विकासके सारे सपने टूटकर बिखर रहे हैं, जीवनकी सभी योजनाएं अनिश्चित हो चुकी हैं। लोगोंकी जीवनशैली बदल चुकी है, अब लोग सिर्फ अपनों और अपने आपको कोरोनासे बचानेकी कोशिशमें लगे हुए हैं। आज मजदूर वर्ग और अनिश्चित आयवालोंके जीवनमें जो बीत रहा है वह सिर्फ वही समझ सकते हैं और अनुभव कर सकते हैं। निरंतर बढ़ती महंगीने उनको पूर्ण रूपसे असहाय कर दिया है। क्योंकि जीवन जीनेके लिए सिर्फ गेहूं और चावलसे काम नहीं चलता, बल्कि दाल, सब्जी, मिर्च-मसाला और खाद्य तेल और बीमार पडऩेपर दवाइयोंकी भी आवश्यकता पड़ती है जिनकी कीमतें आसमान छू रही हैं और हम सभी जानते हैं कि गरीबोंकी मसीहा सिर्फ सरकार ही होती है। यदि वही अपने कर्तव्यसे मुकर जाये तो गरीब और मजदूर वर्ग समयसे पहले ही मौतके शिकार हो जाते हैं। कोरोनाकाल इसका एक स्पष्ट उदाहरण है जिसमें सैकड़ों मजदूर और गरीब समयसे पहले ही मौतके शिकार हो गये हैं।

कोरोनासे निरंतर हो रही तबाहीसे आज जीवन इतना अनिश्चित हो चुका है कि लोगोंकी आंखोंसे आंसू सूख चुके हैं। कोरोनाने न जाने कितने परिवारोंमें तबाही मचाकर दुखभरी जिन्दगी जीनेके लिए मजबूर कर दिया है। शायद इसको समझना सत्ताधारियों और नीति-निर्माण कर्ताओंके लिए इतना आसान नहीं है और यदि समझते तो शायद इतनी तबाही नहीं हो पाती। क्योंकि मौतोंके कम या ज्यादा आंकड़ोंसे न हम उनके परिवारोंकी दु:खकी गहराईको समझ सकते हैं और न माप सकते हैं। आज हजारों लोगोंका विश्वास सिर्फ सरकारसे ही नहीं, बल्कि उसके द्वारा दी जा रही दवाइयोंसे भी उठ रहा है। लोग वैक्सीन लगवानेसे डर रहे हैं। आखिर ऐसी स्थिति पैदा हुई कैसे और कौन इसके लिए जिम्मेदार है। इन प्रश्नोंपर गौर करनेकी जरूरत है। आज हम प्राथमिक और जरूरी कार्योंको छोड़कर चुनावी जंग जीतनेमें लगे हैं। न हमारे पास इस समस्यासे निबटनेके लिए कोई विशेष रणनीति है और न कोई रोडमैप है। आज हम सिर्फ कोरोनाका बहाना बताकर विकास कार्योंसे बच नहीं सकते। ऐसी महामारियां आती और जाती रहेंगी उनसे निबटनेके लिए हमारे पास पर्याप्त साधन, उचित रणनीति और सही निर्णय लेनेकी क्षमता होनी चाहिए। मानव जीवनको इतने हल्केमें नहीं लिया जाना चाहिए कि अस्पतालमें इलाजके लिए बेड और श्मशान घाटमें स्थान न मिले। हमें कोरोनाके दौरान और कोरोनाके बाद हमारी अर्थव्यवस्थाको सिर्फ जीडीपीके विकासके आंकड़ोंसे नही देखना चाहिए, बल्कि देशके लोगोंकी सुख-समृद्धि, खुशी और गुणवत्तापूर्ण जीवनके नजरियेसे भी देखा जाना चाहिए वही हमारा वास्तविक विकास कहलायेगा। जीडीपीकी विकास दरका अर्थ देशकी कुल आयमें वृद्धिसे होता है, न कि सबकी आयमें वृद्धिसे मतलब मुठ्ठीभर लोगोंको भोजन मिलनेसे पूरी देशकी जनताका पेट नहीं भर जाता। हमारी सांख्यिकीकी सबसे बड़ी कमी यही है। आज देशके कुछ गिने-चुने अमीरोंके पास देशकी ९० प्रतिशत सम्पत्ति है जो हमारी औसत प्रति व्यक्ति आयको बढ़ा तो देती है लेकिन आम आदमीकी वास्तविक आय ज्योंकी त्यों रहती है। उनके जीवनपर कोई परिवर्तन नहीं आता। हमको जीडीपीके साथ उसके वितरणका भी विशेष रूपसे ध्यान रखना चाहिए तभी हम एक कुशल, समृद्ध और खुशहाल देशका निर्माण कर सकते हैं।

हमारी सकल घरेलू विकासकी दर निरंतर गिरनेसे विशेष रूपसे संवेदनशील अर्थशास्त्रियों और जीडीपीके आंकड़ोंको समझनेवालोंके लिए एक चिंताका विषय बन गया है। क्योंकि अर्थव्यवस्थाका हर क्षेत्र चाहे वह प्राथमिक हो, द्वितीयक या फिर सेवा क्षेत्र हो, हर क्षेत्र किसी न किसी रूपमें जरूर प्रभावित हुआ है जिससे हमारे राजस्वमें भी भारी कमी आयी है। अब हमको ऐसी स्थितिसे निकलनेके लिए हमें अनुभवी अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकोंसे सलाह लेनेकी जरूरत है। क्योंकि आज हमें हर पहलुओंको ध्यानमें रखते हुए एक अच्छी रणनीतिके साथ एक अच्छे रोडमैप तैयार करनेकी आवश्यकता है तभी हम समावेशी विकासकी एक आदर्श नींव रख सकते है। आज धैर्यपूर्वक और सही निर्णय लेनेकी जरूरत है क्योंकि एक छोटा-सा निर्णय या तो देशको तबाह कर सकता है या फिर उन्नतिकी एक नयी दिशा दे सकता है। कोरोनाकलमें लिये गये निर्णय हमारे लिए स्पष्ट उदाहरण हैं। आज देशका हर वर्ग परेशान तो है ही उनमेंसे निम्न और मजदूर वर्गकी स्थति काफी दयनीय हो चुकी है। उनकी आय शून्य हो चुकी है, लेकिन उनकी जरूरतें ज्योंकी त्यों हैं और ऊपरसे निरंतर बढ़ती महंगीने उनका जीवन-यापन दूभर कर दिया है। विकासके सभी संकेतक कमजोर हो चुके हैं जिनको यथास्थतिमें लानेके लिए वर्षों लग सकते हैं। आज प्राथमिक शिक्षासे लेकर उच्च शिक्षा पूर्ण रूपसे प्रभावित हो चुकी है सिर्फ डिग्रियां बांटनेसे छात्रोंके जीवनमें अपने आप सोच और समझ विकसित नहीं हो सकती। दूसरी तरफ रोजगारके अवसर भी निजी और सार्वजनिक क्षेत्रमें बहुत सीमित हो चुके हैं। लोग डिग्रियां लेकर रोजगारकी इंतजार कर रहे हैं, बेरोजगारीकी स्थिति इस हदतक पहुंच चुकी है कि लोग पीएचडी जैसी डिग्रियां प्राप्त कर बेरोजगार बैठे हुए हैं। इन सभी समस्याओंपर विशेष ध्यान देनेकी जरूरत है तभी हमारा सबका साथ और सबका विकासका सपना पूर्ण होगा।