अवधेश कुमार
पिछले वर्ष हुए दिल्ली दंगोंपर तत्काल कोई फैसला या अंतिम मंतव्य न देते हुए भी शीर्ष न्यायालयने कहा है कि उच्च न्यायालयके फैसलेको देशके किसी भी न्यायालयमें नजीर न माना जाय। पूरा मामला गैर-कानूनी रोकथाम कानून यानी यूएपीएसे जुड़ा है और उच्च न्यायालयने इसपर भी टिप्पणियां की है। शीर्ष न्यायालय द्वारा ऐसा कहनेके बाद अब इस कानूनके तहत बंद आरोपियोंके मामलेमें दिल्ली उच्च न्यायालयके फैसलेको उद्धृत नहीं किया जायगा। कभी कोई पक्षकार अवइसका हवाला नहीं दे सकेगा। १५ जूनको तीनों आरोपियोंको जमानत देनेके फैसलेमें दिल्ली उच्च न्यायालयने यूएपीए, नागरिकता संशोधन कानून, विरोध-प्रदर्शनपर पुलिस प्रशासनके रुखपर काफी तीखी टिप्पणियां की थी। उच्च न्यायालयने अपने आदेशमें कहा था कि सरकार विरोध प्रदर्शन दबानेकी चिंतामें प्रदर्शनके संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियोंमें फर्क नहीं कर पा रही है। इससे विरोध प्रदर्शन और आतंकवादी गतिविधियोंकी रेखा धुंधली हो रही है। उच्च न्यायालयने यह भी कहा था कि हिंसा नियंत्रित हो गयी थी और इस मामलेमें यूपीए लागू ही नहीं होगा।
वास्तवमें दिल्ली दंगे और यूएपीएको लेकर दिल्ली उच्च न्यायालयकी यह असाधारण प्रतिक्रिया है। दिल्ली पुलिसकी याचिकापर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालयने कहा है कि यह मामला महत्वपूर्ण है और इसके देशव्यापी परिणाम हो सकते हैं। जिस तरह कानूनकी व्याख्या की गयी है संभवत: उसपर शीर्ष न्यायालयकी व्याख्याकी जरूरत होगी। शीर्ष न्यायालयने यह भी कहा है कि नोटिस जारी किया जा रहा है और दूसरे पक्षको भी सुना जायगा। यह स्वाभाविक है, क्योंकि न्यायालय कभी भी एक पक्षको सुनकर कोई फैसला नहीं दे सकता। इसलिए शीर्ष न्यायालय द्वारा तीनों आरोपियोंको नोटिस जारी कर चार हफ्तेमें जवाब मांगना न्यायिक प्रक्रियाका स्वाभाविक अंग है। तो जुलाईके तीसरे सप्ताहमें होनेवाली सुनवाईपर पूरे देशकी नजर होगी। वास्तवमें यदि जमानतपर दिये गये उच्च न्यायालयके फैसलेको पढें़ तो ऐसा लगता है जैसे उसने यूएपीए कानूनके तहत विहित प्रक्रियाको काफी हदतक पलटी है। जमानतके लिए दायर याचिकामें आरोपियोंपर लगे आरोपोंपर बात करनेके साथ उसने संपूर्ण कानूनपर टिप्पणी कर दी है। जिस तरहकी टिप्पणियां है उससे लगता है जैसे न्यायालय तीनों आरोपियोंको भी दोषी नहीं मानती। जैसा हम जानते हैं शाहीनबागमें नागरिकता संशोधन कानूनके खिलाफ एक मुख्य मार्गको घेर कर दिये गये धरनेका दिल्लीमें विस्तार करनेके लिए प्रकट आक्रामकता फरवरीमें दंगोंमें परिणत हो गया। इसमें ५३ लोग मारे गये जिसमें पुलिसकर्मी भी थे और ७०० से ज्यादा लोग घायल हुए। यह हिंसा उस समय हुई थी जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत आये थे। साफ है कि हिंसाके पीछे सुनियोजित साजिश थी ताकि नागरिकता संशोधन कानूनके आधारपर सरकारको अंतरराष्ट्रीय स्तरपर निंदा सुननी पड़े। आरोपी वास्तविक दोषी हैं या नहीं इसपर अंतिम फैसला न्यायालय करेगा। नागरिकता संशोधन कानूनको हालांकि देशके बहुमतका समर्थन प्राप्त था और है लेकिन एक वर्ग उसका विरोधी भी था और आज भी है। किसी लोकतांत्रिक समाजका यह स्वाभाविक लक्षण है। किंतु इसका अभिप्राय नहीं कि हम किसी कानूनका विरोध करते हैं तो हमें सड़क घेरने, आगजनी करने, निजी-सार्वजनिक संपत्तियोंको किसी तरहका नुकसान पहुंचाने, पुलिसपर हमला करने और इसके लिए अलग-अलग तरीकोंसे लोगोंको भड़कानेका भी अधिकार मिल जाता है। यह सब भयानक अपराधके दायरेमें आते हैं। दंगोंके दौरान लोगोंने देखा कि किस तरह योजनाबद्ध तरीकेसे कई प्रकारके बम बनाये गये थे, अवैध हथियारोंका उपयोग हुआ था, सरकारी निजी संपत्ति संपत्तियां जलायी गयी थीं, निर्मम तरीकेसे हत्याएं हुईं थीं। जाहिर है इसके साजिशकर्ताओंको कानूनके कटघरेमें खड़ा कर उनको सजा दिलवाना पुलिसका दायित्व है।
उच्च न्यायालयके सामने नागरिकता संशोधन कानूनकी व्याख्याका प्रश्न नहीं था। बावजूद उसने लिखा है कि प्रदर्शनके पीछे यह विश्वास था कि नागरिकता संशोधन कानून एक समुदायके खिलाफ है। जब भी कोई व्यक्ति या समूह आतंकवादी हमला करता है या कोई बड़े नेताकी हत्या करता है तो उसका तर्क इसी तरहका होता है कि उन्होंने एक समुदाय, एक समाज, एक व्यक्तिके साथ नाइंसाफी की। पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधीके हत्यारोंका तर्क भी तो यही था। न्यायालय पता नहीं क्यों इस मूल बातपर विचार नहीं कर पाया कि प्रदर्शनके अधिकारमें सड़कोंको घेरने, पुलिससे मुठभेड़ करने, हिंसा द्वारा मेट्रो रोकनेसे लेकर लोगोंको मारने और बम फेंकनेका अधिकार शामिल नहीं होता। यह तर्क भी आसानीसे गले नहीं उतरता कि यदि हिंसा नियंत्रित हो गयी तो यूएपीए लागू ही नहीं होगा। यदि हिंसाकी साजिश बड़ी हो और उसे पुलिस और खुफिया एजेंसियां विफल कर दें तो क्या उनके साजिशकर्ताओंपर कानून लागू नहीं होता। व्यक्ति या व्यक्तियोंके समूहने विस्फोटके लिए जगह-जगह बम लगा दिये और पुलिसने उसे पकड़कर निष्क्रिय कर दिया तो क्या इससे अपराधकी तीव्रता कम हो जायगी।
निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालयका अंतिम फैसला आनेके पूर्व हम कोई निष्कर्ष नहीं दे सकते। न्यायिक मामलोंमें पूर्व आकलनकी गुंजाइश नहीं होती। बावजूद कुछ संकेत मिलता है। वस्तुत: उच्च न्यायालयका भी अपना सम्मान है। सर्वोच्च न्यायालय उसके फैसलेपर नकारात्मक टिप्पणी करने या माननीय न्यायाधीशोंके बारेमें ऐसी कोई टिप्पणी करनेसे प्राय: बचता है जिससे उनके सम्मानको किसी तरह धक्का पहुंचे। हमने देखा है कि उच्च न्यायालयके फैसलोंको रद करते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय ज्यादातर मामलोंमें केवल मुकदमेके गुण-दोषतक ही अपनी टिप्पणियां सीमित रखता है। यही इस मामलेमें भी दिख रहा है। शाहीनबाग धरनेको लेकर उस समय भी सर्वोच्च न्यायालयने तीखी टिप्पणियां की थी। न्यायालयने सड़क घेरना, आवाजाहीको बंद करना आदिको अपराध करार दिया था। इस संबंधमें सर्वोच्च न्यायालयने फैसला दिया जिनमें आन्दोलनकारियोंके धरना-प्रदर्शनके अधिकारको स्वीकार करते हुए कहा गया है कि कानून और संविधानकी सीमाओंके तहत ऐसा किया जाय तथा सड़कोंपर चलनेवालों या उनके आसपासके दुकानदारोंके अधिकारका भी ध्यान रखा जाय। न्यायालयने यहांतक कहा है कि यदि वह सड़कों, गलियों या ऐसे सार्वजनिक स्थलोंपर कब्जा करते हैं तो पुलिसको उसे खाली करानेका अधिकार हासिल हो जाता है। उच्च न्यायालयने इस बारेमें कुछ नहीं कहा है। निश्चित रूपसे आगेकी सुनवाईमें यह विषय भी सामने आयगा।