सम्पादकीय

भारत-अमेरिकी संबंधोंपर नजर


अवधेश कुमार
ट्रंप कालमें भारतके साथ कुछ ऐसे समझौते हुए जो अमेरिका अपने निकटतम देशोंके साथ ही करता है। चीनके साथ हमारे तनावके दौरमें भी ट्रंपने खुलकर भारतका पक्ष लिया। दक्षिण चीन सागरमें भी चीनके खिलाफ जितना कड़ा तेवर ट्रंपने अपनाया वैसा पूर्वके अमेरिकी राष्ट्रपतियोंमें नहीं देखा गया। एकाध अवसरको छोड़ दें तो ट्रंप भारतके आंतरिक मामलोंपर कोई बयान देनेसे बचते थे या ऐसा बयान नहीं देते थे जिससे हमारे लिए कोई परेशानी खड़ी हो जाये। जो बिडेन और उनके उपराष्ट्रपति कमला हैरिसकी मानवाधिकार, जम्मू कश्मीर, नागरिकता संशोधन कानून आदि मामलोंपर अबतक प्रकट की गयी भारत विरोधी भावनाएं हमारे सामने हैं। जो बिडेन कई मामलोंपर ऐसे बयान दे चुके हैं जो भारतके लिए नागवार गुजरनेवाला था। प्रश्न है कि उनके कार्यकालमें आगे संबंधोंका भविष्य क्या होगा। चुनाव जीतनेके बाद बाइडनने अपनी विदेश नीतिकी कई मामलोंपर ऐसे बयान दिये जिनसे भारतमें चिंता पैदा हुई। उन्होंने चीनके साथ कुछ नरमीका संकेत दिया था। साथ ही एशिया प्रशांत क्षेत्र नीतिमें भी बदलाव की बात की। लेकिन पिछले कुछ दिनोंमें उनके जो भी बयान आये हैं, उनकी ओरसे जो संकेत दिये गये वह पूर्वके तेवरसे थोड़े अलग हैं। प्रधान मंत्री मोदीके साथ उनकी बातचीतके भी जो अंश सामने आये वे हमारे लिए काफी अनुकूल थे।
बाइडनके भारतके प्रति व्यवहारकी दो तस्वीरें हमारे सामने हैं। एक १९९२ में सीनेटरके रूपमें उनकी भूमिका थी जिसमें उन्होंने रूससे क्रायोजेनिक इंजन खरीदनेके रास्तेमें बाधा खड़ी की थी। इससे हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम पिछड़ गया था। दूसरे सीनेटर और उपराष्ट्रपतिके रूपमें उनका व्यवहार भारतके पक्षकारका भी रहा। २००६ में उन्होंने कहा था कि २०२० के मेरे सपनेकी दुनियामें अमेरिका और भारत सबसे नजदीकी देश है। २००८ में जब भारत अमेरिका नाभिकीय समझौतेपर सीनेटरके रूपमें बराक ओबामाको थोड़ी हिचक थी तब बाइडनने केवल उनको ही नहीं समझाया, अनेक रिपब्लिकन और डेमोक्रेटके बीच इस संधिका पक्ष रखकर इससे सहमत कराया। उपराष्ट्रपतिके कालमें सामरिक क्षेत्रमें भारतके साथ रिश्तोंको मजबूत करनेकी उन्होंने वकालत की। ओबामाके कार्यकालमें भारतको बड़ा रक्षा साझेदार घोषित किया गया, रक्षा लॉजिस्टिक आदान-प्रदान और एक-दूसरेके ठिकानोंको उपयोग करनेके समझौते हुए। राष्ट्रपति बननेके बाद बाइडन इन सबसे पीछे हटनेकी कोशिश करेंगे ऐसा माननेका कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता।
एक सामान्य तर्क यह है कि शासन बदला है तो सब कुछ पहलेकी तरह नहीं होगा। दूसरी ओर बिल क्लिंटनसे लेकर जॉर्ज बुश, बराक ओबामातक सभीने भारतके साथ बहुआयामी संबंधोंको मजबूत करनेकी कोशिश की। जहांतक चीनका सवाल है तो बाइडनने पिछले दिनों एक साक्षात्कारमें साफ किया कि चीनके साथ जो प्रारंभिक व्यापार सौदे हुए हैं उनको फिलहाल नहीं रद करेंगे। उनका कहना था कि वे अमेरिकाके भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदीके साथ भविष्यमें अपने लाभको सर्वोपरि रखेंगे। उनका कहना था कि मैं कोई तात्कालिक कदम नहीं उठाने जा रहा हूं। चीनका रवैया और उसका शक्ति विस्तार भारतके लिए हमेशा चिंताका कारण रहा है। कोरोना कालमें धोखेबाजीसे लद्दाखमें उसका सैन्य रवैया कितने बड़े तनावका कारण है यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह कल्पना कम लोगोंको रही होगी कि वह हमारे जमीनको कब्जानेकी घटिया सैन्य काररवाई कर सकता है। वह विफल हुआ, परन्तु भारत उसके प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता। इसमें अमेरिका जैसे देशका साथ और सहयोग पहलेकी तरह रहे यह चाहत हमारी होगी। वैसे इस बीच भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलियाके साथ क्वाड संघटनमें सक्रिय हुआ है। क्वाड इस समयतक अमेरिकाकी मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत रणनीतिके मूलमें है। चारों देशोंकी नौसेनाएं रक्षा अभ्यासमें शामिल होती हैं।
चीनके प्रति बाइडनकी नीतिको देखना होगा। यदि वह इस समय किसी तरह चीनके साथ तनाव कम करके सहयोग बढ़ानेकी ओर अग्रसर होते हैं तो हमारे लिए अपनी सामरिक नीतिपर पुनर्विचारकी आवश्यकता पैदा हो जायेगी। अमेरिकाकी सीमा चीनके साथ नहीं लगती। इसलिए उसे कोई समस्या नहीं है। हमारी और कई देशोंकी स्थिति अलग है। यह सच है कि रिचर्ड निक्सनसे लेकर बराक ओबामातक सारे राष्ट्रपति चीनके इतने शक्तिशाली होनेमें सहयोग करनेकी भूमिका निभाते रहे। दक्षिण चीन सागरमें भी चीनने अपने कृत्रिम द्वीपका निर्माण कर उसका सैन्यकरण कर लिया। लेकिन अमेरिकाने उसके खिलाफ सख्ती नहीं बरती। बराक ओबामाने तो यहांतक कहा कि हमें समृद्धि चीनके बजाय दुर्बल और आक्रामक चीनसे अधिक खतरा होगा। ट्रंपके कार्यकालमें ही अमेरिकाकी चीन नीति पलटी। यह भारतके अनुकूल था। चीन जिस तरह पाकिस्तानका साथ देता है उसमें अमेरिकाका रुख पहले की तरह सख्त नहीं रहा तो क्या होगा। भारतके लिए चीन और पाकिस्तान दोनों चिंताके विषय हैं। चीन-पाकिस्तान गठजोड़के प्रति अमेरिकाकी किसी तरहकी नरमी भारतके खिलाफ जायेगी। इससे भारतकी सुरक्षा चुनौतियां बढ़ जायेगी। भारतके लिए एक और चिंताका कारण हिन्द प्रशांत क्षेत्र भी है। ट्रंप प्रशासनने भारतके महत्वको रेखांकित करते हुए ही एशिया प्रशांतका नाम बदलकर हिंद प्रशांत क्षेत्र कर दिया। बाइडन मुक्त और स्वतंत्र हिंद प्रशांतकी जगह सुरक्षित एवं समृद्ध हिंद प्रशांतकी बात कही है। यदि मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत नहीं रहेगा तो हमारी पूरी रणनीतिमें बदलाव करना पड़ेगा। भारतने उस क्षेत्रके अनेक देशोंके साथ रक्षा समझौते किये हैं, कुछ रक्षा जिम्मेदारियां ली हैं। उनके आलोकमें हमें हमें अपनी सामरिक नीति और रणनीतिको नये सिरेसे गढऩे की जरूरत पड़ सकती है। इन आशंकाओंको नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सत्तामें आनेके पहलेके वक्तव्य और सत्तामें आनेके बादकी नीतियोंमें कई बार फर्क होता है। भारतके लिए अमेरिकाका महत्व है तो अमेरिकाको भी भारतकी महत्ताका आभास है। उम्मीद है कि बाइडन और कमला दोनों भारतके महत्वको समझेंगे। वे चीन जैसे देश द्वारा विश्वके लिए पैदा की जा रहीं चुनौतियों और समस्याओंको देखते हुए अपने हितोंका सही विश्लेषण करेंगे। सत्तामें आनेके पूर्व क्लिंटन और ओबामा दोनोंका व्यवहार याद करें तो सत्ता मिलनेके बाद उन्होंने भारतको जितना महत्व दिया, वह भी हमारे सामने है। ओबामा अमेरिका-भारत संबंधोंको २१ वीं सदीकी सबसे निर्णायक साझेदारी घोषित किया था। संभावना यही है कि बाइडन भी ऐसे ही करेंगे। वे उस व्यापार संधिको साकार कर सकते हैं जिसे ट्रंप करना चाहते थे लेकिन नहीं कर सके। क्लिंटनने भारत यात्राके बाद पाकिस्तान जाकर जिस तरह आतंकवादपर उसे खरी-खोटी सुनायी थी उसे कोई भुला नहीं सकता। उसके पहले तो कल्पनातक नहीं थी कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसा करेगा। ठीक वैसी ही भूमिका ओबामाकी विदेश मंत्रीके रुपमें हिलेरी क्लिंटनने निभायी थी। इस तरहके कई वाकये हमारे सामने हैं जिनके आलोकमें विचार करनेपर हमारे लिए ज्यादा चिंता नहीं होनी चाहिए। वैसे भी भारत जैसे देशके साथ संबंध बिगाडऩेकी सीमातक बाइडन नहीं जा सकते।