हिन्द प्रशान्त क्षेत्रमें चीनकी बढ़ती दादागिरीके मद्देनजर भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलियाके बीच बने गठबन्धन ‘क्वाड’ के प्रमुखोंकी पहली बैठक शुक्रवारको सम्पन्न हुई। चारों देशोंके नेताओंके बीच कोरोना वैक्सीन बनाने, अत्याधुनिक एवं संवेदनशील तकनीकीके इस्तेमाल और जलवायु परिवर्तनसे निबटनेके लिए तीन अलग-अलग विशेषज्ञ समूह बनानेका फैसला लिया गया है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, आस्ट्रेलियाई प्रधान मंत्री स्काट मारीसन एवं जापानी प्रधान मंत्री योशिहिदे सुगाके बीच वर्चुअल बैठक हुई। इसके बाद संयुक्त बयान जारी किया गया। सन्देश स्पष्टï था कि विश्वकी नयी व्यवस्थामें भारत अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा रहा है। साथ ही इस नयी व्यवस्थामें चीनकी आक्रामकता धूल-धूसरित हो सकती है। हालांकि चारों देशोंके प्रमुखोंने चीनका नाम नहीं लिया, परन्तु इन चारों देशोंका एक मंचपर आना ही चीनके माथेपर लकीर खींचनेके लिए काफी था। एशिया प्रशान्त क्षेत्रमें चीनकी बढ़ती आक्रामकतासे यह चारों देश चिन्तित हैं और इसपर अंकुश लगानेके लिए आपसी सहयोग बढ़ानेकी जरूरत महसूस कर रहे हैं। इस गठबन्धन क्वाडकी तुलना १९५७ में पेरिसमें हुई नाटो यानी नार्थ अटलांटिक ट्रिटी आग्र्रेनाइजेशनकी पहली बैठकसे किया जा रहा है। इसे मौजूदा माहौलमें चीनके खिलाफ बनते अन्तरराष्टï्रीय जनमतका संकेत भी माना जा रहा है। कोरोना वायरससे सही तरीकेसे न निबट पानेके कारण विश्वमें जहां अमेरिकी प्रभाव कम हुआ, वहीं कोरोना टीका विश्वभरको उपलब्ध करानेके चलते भारतका दबदबा कायम हुआ है। हालांकि भारतीय प्रधान मंत्री मोदीने अपने ऐजेण्डेको साफ करते हुए बताया कि टीकाकरण, जलवायु परिवर्तन और इमर्जिंग टेक्रालाजी प्राथमिकतामें है। क्वाडकी दमदार उपस्थितिको विश्वने महसूस किया परन्तु इससे सबसे अधिक परेशान चीन ही हुआ है। क्वाड बैठक शुरू होनेके कुछ घण्टे पूर्व ही चीनने आपत्ति जताते हुए इस बैठकको अपने खिलाफ बताया था। यही वजह है कि कुछ दिन पूर्व भी चीनने कहा था कि चारों देश ऐसा कुछ करेंगे जो क्षेत्रीय स्थिरताके प्रतिकूल हो सकता है। हालांकि क्वाड सम्मेलनमें चीनका नाम नहीं लिया गया परन्तु चीनकी आक्रामकताको भारतने ही जमकर मुकाबला किया है। भारतने स्वयंके स्वाभिमानकी रक्षा की है। गलवान घाटीमें चीनको बता दिया कि भारत अब १९६२ एवं १९६५ वाला देश नहीं है। कोरोना टीकाकरणको लेकर भारतकी दमदार उपस्थितिकी भी विश्व सराहना कर रहा है। चीनने जहां विश्वको रोगयुक्त बनाया, वहीं भारत अपनी परम्परानुसार ‘सर्वेसन्तु निरामया:’ की अवधारणापर चलते हुए विश्वको रोगमुक्त बनानेके लिए तत्पर है। यही है भारतकी सहृदयता, उदारता एवं संकल्पबद्धता।
पूजा स्थलकी वैधानिकता
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून १९९१ की वैधानिकतापर शीर्ष न्यायालय विचार करेगा। न्यायालयने कानूनको चुनौती देनेवाली याचिकापर विचारका मन बनाते हुए केन्द्र सरकारको नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है। दरअसल पिछले वर्ष एक याचिका दाखिल की गयी थी, जिसमें वर्ष १९९१ में बनाये गये पूजा स्थल कानूनको भेदभावपूर्ण एवं मौलिक अधिकारोंका उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी गयी थी कि केन्द्र सरकार कानून बनाकर हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिख समुदायके लिए कोर्टका दरवाजा बंद नहीं कर सकती। याचिकाकर्ताने पूजा स्थल कानूनकी धारा २, ३ एवं ४ को संविधानके अनुच्छेद १४, १५, २१, २५, २६ एवं २९ का उल्लंघन घोषित करते हुए रद करनेकी मांग की है। इन प्रावधानोंमें कुछ आक्रमणकारियोंकी ओरसे गैरकानूनी रूपसे स्थापित किये गये पूजा स्थलोंको कानूनी मान्यता दी गयी है परन्तु तत्कालीन नरसिंहाराव सरकारने ११ जुलाई, १९९१ को इस कानूनको लागू किया और मनमाने और कटआफ डेट तय करते हुए घोषित कर दिया कि पूजा स्थलों एवं तीर्थ स्थलोंकी जो स्थिति १५ अगस्त, १९४७ को थी, वही रहेगी। जबकि याचिकाकर्ताकी दलील है कि केन्द्र न तो कानूनको पूर्व तारीखसे लागू कर सकता है और न ही लोगोंको जुडिशल रेमेडीसे वंचित कर सकता है। जबकि पूजा-पाठ एवं धार्मिक विषय राज्यके अन्तर्गत आते हैं और केन्द्र सरकारने इसपर मनमाना कानून बनाया है। सचाई भी यही है कि प्रत्येक व्यक्तिको संवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वह अपने अधिकारोंको लेकर कभी भी कोर्टका दरवाजा खटखटा सकता है और इस अधिकारसे कोई भी सरकार किसीको भी वंचित नहीं रख सकती। सरकारोंका कार्य किसी भी धर्म, समुदायके हितोंका हनन करना नहीं है। सुप्रीम कोर्टमें दाखिल याचिकामें प्लेसेज आफ वर्शिप एक्ट १९९१ को चुनौती देनेका अर्थ है कि काशी एवं मथुरा विवादको भी कानूनी घेरेबंदीमें लानेकी कोशिश है। विदेशी आक्रांताने भारतके अनेकों पूजास्थलको रौंदा, तोड़-फोड़ की, जिससे भारतीयोंका हृदय आहत हुआ। अब जबकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो पूर्वकी गलतियोंकी समीक्षाका समय आ गया है। इसपर पुनर्विचार भी आवश्यक है।