अवधेश कुमार
परिस्थितियां चाहे जितनी विकट हो निर्णय हमेशा वर्तमानके साथ भविष्यका ध्यान रखते हुए लिया जाना चाहिए। घनघोर संकटों और विकट परिस्थितियोंमें आम आदमी अपना धैर्य खो देते हैं और दबावोंमें देश ऐसे फैसले करता है जो वर्तमानके साथ भविष्यमें भी उनके लिए दूसरे संकट और बड़ी चुनौतियोंका कारण बनता है। इस समय प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीकी इस बातके लिए तीव्र आलोचना हो रही है कि विश्वमें प्रशंसा पानेके लिए उन्होंने अपने देशको नजरअंदाज कर दूसरे देशोंको कोरोनाके टीके प्रदान किये। कोरोना महाआपदाके इस अमानवीय और क्रूर दौरमें सरकारके लिए अपना बचाव करना कठिन है। विपक्ष शासित कई राज्य लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं जिनका तात्कालिक निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि मोदी सरकारने दुनियाभरके देशोंको टीका प्रदान करनेकी नीति नहीं अपनायी होती तो यहां टीकेकी कमीसे नहीं जूझना पड़ता। दबाव ऐसा है कि केंद्र सरकार इस समय किसी देशके लिए टीकेके निर्यातकी अनुमति नहीं दे सकती। सामान्य तौरपर यह सिद्धांत सही है कि यदि अपने घरमें भी आग लगी हो तो पहले उसे बुझाते हैं और उसके बाद पड़ोस और अन्यकी आग बुझानेकी कोशिश करते हैं हैं। लेकिन क्या एक ऐसे राष्ट्रके रूपमें जिसका लक्ष्य विश्व स्तरपर सकारात्मक रूपसे प्रभावी होना तथा महत्वपूर्ण मामलोंमें मार्गदर्शन करना हो, यह नीति यथेष्ट है। क्या इससे भविष्यमें भारतकी अंतरराष्ट्रीय भूमिका प्रभावित नहीं होगी तथा पड़ोसके देशों द्वारा पैदा की जा रही चुनौतियोंसे निबटनेमें समस्याएं नहीं आयंगी।
ऐसे प्रश्नोंके जवाबमें अमेरिका जैसे देशका उदाहरण दिया जाता है जिसने कोरोना टीकाको लेकर यह स्पष्ट करनेमें कोई हिचक नहीं दिखाई कि हमारी प्राथमिकता पहले हमारे लोग हैं। अमेरिकामें इस समय उस डेमोक्रेटिक पार्टीका शासन है जो विश्वभरमें मानवाधिकार तथा आम लोगोंके पक्षमें आवाज उठानेका दावा करता है। निष्कर्ष सीधा है कि जब अमेरिकाका डेमोक्रेट शसन कोरोना टीकेके संदर्भमें अपनी सीमाओंके अंदर सिमट सकता है तो हमें भी ऐसा करनेमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए। कोरोनाके प्रतिदिन सामने आ रहे मामले और मौतोंके आंकड़ेके समानांतर यदि आप इसके विरुद्ध तर्क देंगे तो बहुमतको स्वीकार नहीं होगा। उल्टे आप आलोचनाओं और हमलेके शिकार होंगे। किंतु इसका जोखिम उठाते हुए भी भविष्यका ध्यान रखकर कुछ बातें कहनी होंगी। पड़ोसी देश नेपालसे कोरोना प्रसारकी आ रही खबरें भयभीत करनेवाली हैं। एक महीने पहले वहां हर दिन सौके आसपास कोरोना पॉजिटिव मामले सामने आते थे जबकि आज यह ८००० या उससे ऊपर जा रहा है। टेस्ट होनेवालोंमें ४४ प्रतिशतकी रिपोर्ट पॉजिटिव आ रही है। यह आंकड़े ही डरानेवाले हैं और चूंकि नेपालकी स्वास्थ्य व्यवस्था बिल्कुल कमजोर है, इसलिए स्थितिके ज्यादा भयावह होनेका खतरा है। नेपालके अस्पतालोंमें जगह नहीं है। भर्ती मरीजोंके लिए आम दवाइयांतक उपलब्ध नहीं। मरीजोंको आक्सीजन कंसट्रेटर नहीं मिल रहे हैं। वहां सेनाको श्मशानके बाहर खुलेमें कोरोना मृतकोंका अंतिम संस्कार करना पड़ रहा है। राजनीतिक संकटमें फंसा नेपाल पूरी दुनियासे टीका देनेकी गुहार लगा रहा है। दूसरे पड़ोसी देश भूटानसे भी चिंताजनक समाचार है। पिछले माहकी तुलनामें अभीतक कोरोना पॉजिटिव दरमें ९०९ प्रतिशतकी डरावनी वृद्धि हुई है। एक और पड़ोसी देश श्रीलंकामें कोरोना वायरसका अबतकका सबसे घातक स्ट्रेन मिला है जो एयरबोर्न यानी हवाको संक्रमित करता है। आप यदि किसी संक्रमित व्यक्तिके सीधे संपर्कमें नहीं भी आते हैं तो यह स्ट्रेन हवामें फैलकर भी आपको संक्रमित कर सकता है। यह स्ट्रेन सबसे अधिक घातक और तेजीसे फैलनेवाला है।
श्रीलंकाकी तस्वीर भयावह नहीं है लेकिन कभी भी हो सकती है। डब्ल्यूएचओने कहा है इन देशोंमें स्थिति बिगडऩेमें देर नहीं लगेगी। क्या अपने साथ पड़ोसी भूटान नेपाल और श्रीलंकाके लिए हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती। यदि हमने इसी तरह इनके संकटसे स्वयंको निरपेक्ष बनाये रखा तो भविष्यमें रक्त संबंधों जैसे तर्क किस मुंहसे दे पायंगे। यह न भूलें कि नेपालने चीनके प्रस्तावको ठुकरा कर भारतसे टीका लेनेका करार किया था। चीन इन सभी देशोंको टीका ही नहीं अन्य आवश्यक स्वास्थ्य सामग्रियां प्रदान करनेके लिए तैयार बैठा है। यह अलग बात है कि वह इसकी पूरी कीमत वसूलेगा। नेपाल, श्रीलंका और भूटानमें चीनकी नीतियोंको लेकर किसीको कुछ बतानेकी जरूरत नहीं है। वह अपने प्रभावके अधिकतम विस्तार तथा भारतके प्रभावको नीचे लानेके लिए जो कुछ कर सकता है कर रहा है। यदि मोदी सरकार अपने देशके साथ इनकी सहायताके लिए आगे आती है यानी आवश्यक सामग्रियां तथा कोरोना टीके प्रदान करनेका कदम उठाती है तो विपक्ष उसके पीछे पड़ जायगा। यह सही है कि इस समय जितनी सामग्रियां और टीके इन देशोंमें भेजेंगे उनका सीधा असर भारतमें कोरोना कहरको खत्म या नियंत्रित करनेके कदमोंपर पड़ेगा। किंतु नहीं करते तो इन देशोंके लोगोंके अंदर भारतके प्रति वितृष्णा भाव तो बढ़ेगा ही चीनको यहां खुलकर खेलनेके लिए मैदान मिल जायगा। यह कल्पना ही बेमानी होगी कि संकटसे उबरनेके बाद हम क्षतिकी भरपाई कर लेंगे। ऐसा नहीं हो सकता। पता नहीं इन देशोंके जन-समुदायकी टीस तथा चीनके विस्तारकी खाईं पटनेमें कितने वर्ष लगेंगे। भूटान भारतके साथ अंतरराष्ट्रीय मंचोंपर हर समय खड़ा होनेवाला देश है। आजतक वहां चीनका दूतावास नहीं बन सका। भूटानपर चीनकी नजर कोई छिपा तथ्य है। इस समय यदि मजबूर हो भूटानने चीनसे स्वास्थ्य सामग्रियां और टीका लेना आरंभ किया तो हमारे लिए कितनी बड़ी रणनीतिक चुनौती खड़ी हो जायगी। भारतकी सुरक्षाकी दृष्टिसे भूटान महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थलपर है।
श्रीलंकामें महेंद्र राजपक्षेकी सरकार किस तरह चीनकी गोदमें बैठ गयी थी और भारत विरोधी नीतियां अपनाने लगी थी। भारतकी सघन कूटनीतिके बाद श्रीलंका चीनके एकपक्षीय शिकंजेसे बाहर निकला। श्रीलंकाके राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे कहते हैं कि हम चीन और भारतके शक्ति स्पर्धामें नहीं पडऩा चाहते, दोनोंके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं। लेकिन चीन वहां कई स्तरोंपर पांव पसार रहा है। इन सबमें यहां विस्तारसे जानेकी आवश्यकता नहीं। कोलंबो बंदरगाह और उससे संबंधित परियोजनाओंको लेकर अभी चीनके रक्षामंत्री श्रीलंका दौरेपर आये थे। चीनकी सरकार लगातार श्रीलंका सरकारके साथ संवाद कर रही है। नेपाल केपी शर्मा ओलीके शासनकालमें किस तरह चीनी प्रभावमें आकर भारतके लिए बिल्कुल प्रतिकूल देश बन रहा था इसे भी याद करनेकी आवश्यकता है। यह ठीक है कि इस समय अपने लोगोंको सुरक्षित करना, उनकी जान बचाना भारतका प्राथमिक कर्तव्य है। लेकिन अपने लोगोंकी परिभाषा क्या भारतकी वर्तमान भौगोलिक सीमाओंतक ही सीमित रहेगी या कमसे कम नेपाल, भूटान श्रीलंका जैसे हमारे रक्त संबंधवाले सांस्कृतिक रूपसे अविछिन्न देशोंतक विस्तारित होगी। इस प्रश्नका उत्तर देशको अभी देना होगा। इसे टालनेका मतलब देशहितको परे धकेलना है। देश केवल सत्तारूढ़ पार्टीका नहीं है। आज सत्तामें भाजपा है कल कोई और हो सकता है लेकिन देशका दूरगामी हित स्थायी होता है। अमेरिकाका भौगोलिक परिवेश भारतकी तरह नहीं है कि उसे नेपाल, भूटान और श्रीलंकाकी तरह सांस्कृतिक-सामाजिक-सभ्यतागत रूपसे गूंथे हुए पड़ोसी प्राप्त हों। साथ ही उसे चीन जैसा पड़ोसी भी नहीं मिला है जो हर ऐसे अवसरको भारतके विरुद्ध इस्तेमाल करनेकी ताकमें रहता है। चिंता तो बंगलादेशकी भी करनी होगी। हालांकि वह इस स्थितिमें है कि बाहरसे टीके और स्वास्थ्य सामग्रियां खरीद सके। वास्तवमें भारतको फैसला करना होगा। सरकारके साथ विपक्ष, बुद्धिजीवी सब इसपर विचार करें। ऐसे संकटके समय ही किसी देशकी परीक्षा होती है।