डा. रमेश ठाकुर
नेपालमें शेर बहादुर देउबाको देशकी कमान सौंपी जायगी, उम्मीद नहीं थी। अनुमानथा कि संसदीय चुनाव शीघ्र होंगे। क्योंकि इसके लिए नेपाल चुनाव आयोगने तारीखें भी मुकर्रर की हुई थीं। परन्तु सुप्रीम कोर्टने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया। इसके साथ ही फिर नेपालमें सत्तापरिवर्तन हुआ है। सुप्रीम कोर्टने पुराने मामलोंमें सीधा दखल देते हुए मौजूदा राष्ट्रपति विधा देवी भंडारीके दोनों महत्वपूर्ण फैसलों बर्खास्त कर दिया। दरअसल सुप्रीम कोर्टने दोनों ही निर्णयोंमें भंडारीके व्यक्तिगत स्वार्थको देखा। पहला, उन्होंने गलत तरीकेसे केपी शर्मा ओलीको प्रधान मंत्रीकी कुर्सीपर बैठनेकी इजाजत दी। वहीं, दूसरा उनका निर्णय उनके मनमुताबिक वक्तमें देशके भीतर चुनाव कराना था। हालांकि विपक्ष भी तुरंत चुनाव चाहते थे। लेकिन जब सुप्रीम कोर्टने कोरोना महामारीका हवाला देते हुए चुनाव न कराने और प्रधान मंत्री पदसे ओलीको हटाकर उनकी जगह उचित व्यक्तिके हाथों सरकारकी बागडोर सौंपनेका फार्मूला सुझाया तो विपक्ष बिना सोचे राजी हो गया। सुप्रीमके आदेशसे एक बार फिर नेपालकी सत्ता शेर बहादुर देउबाको सौंपी गयी। तल्खीके अंदाजमें जब चीफ जस्टिस चोलेन्द्र शमशेर राणाकी अध्यक्षतावाली पांच सदस्यीय संविधान पीठने खुलेआम राष्ट्रपति विधा देवी भंडारीके निर्णयोंकी आलोचनाएं की तो सत्तापक्षके पास कोई दलीलें नहीं बचीं। चीफ जस्टिसने साफ कहा राष्ट्रपतिने निचले सदनको असंवैधानिक तरीकेसे भंग किया था, जो नहीं किया जाना चाहिए था।
नेपालकी सियासतमें भारतीय राजनीतिका असर हमेशा रहता है। दोनों मुल्कोंकी लम्बी सीमाएं आपसमें जुड़ी हैं लेकिन आवाजाहीमें कोई खलल नहीं होता। आयात-निर्यात भी बेधड़ होता है। परन्तु बीते कुछ महीनोंमें इस स्वतंत्रतामें कुछ खलल पड़ा था। दरअसल ओलीका झुकाव चीनकी तरफ रहा, चीन जिस हिसाबसे नेपालमें अपनी घुसपैठ कर रहा है उससे नुकसान न सिर्फ उनको होगा, बल्कि उसका अप्रत्यक्ष असर भारतपर भी पड़ेगा। लेकिन अब नये प्रधान शेर बहादुर देउबाके आनेसे विराम लगेगा। सर्वविदित है, देउबाको हमेशासे हिंदुस्तानका हितैषी माना गया है। दोनों नेताकी सियासी केमिस्ट्री अच्छी है। केपी शर्मा ओलीको सत्तासे हटानेके लिए विपक्ष लंबे समयसे लामबंद था। विपक्षी दलोंके अलावा नेपाली आवाम भी निर्वतमान हुकूमतके विरुद्ध हो गयी थी। कोरोनासे बचाव और उसके कुप्रबंधन समेत महंगी, भ्रष्टाचार आदि कई मोर्चोंको लेकर लोग सड़कोंपर थे। कई आम लोगोंकी तरफसे भी सुप्रीम कोर्टमें पीआईएल दाखिल हुई थी, जिसमें ओलीको हटानेकी मांग थी। कोरोना वैक्सीनको लेकर भी ओली सवालोंके घेरेमें थे। उनपर आरोप लग रहा था कि भारतसे भेजी गयी कोरोना वैक्सीनको उन्होंने बेच डाला। इसको लेकर नेपाली लोग अप्रैल-मईसे ही सड़कोंपर प्रदर्शन कर रहे थे। सुप्रीम कोर्टने इसपर एक कमेटी भी बनायी है जिसकी जांच जारी है। सबसे बड़ा आरोप तो यही था कि ओली और उनकी सरकार चीनके इशारेपर नाचती थी। भारतके खिलाफ गतिविधियां लगातार बढ़ रही थीं। कई ऐसे मसले थे जिनको देखते हुए सुप्रीम कोर्टने देशहितमें सुप्रीम निर्णय सुनाया। कोर्टके निर्णयकी नेपाली लोग भी प्रशंसा कर रहे हैं। शेर बहादुर देउबा नेपालमें सर्वमान्य नेता माने जाते हैं। जनता उनको पसंद करती है। इससे पहले भी चार बार देशके प्रधान मंत्री रहकर देशकी बागडौर सहीसे संभाल चुके हैं। ऐसे अनुभवी नेताको ही नेपालकी आवाम प्रधान मंत्रीकी कुर्सीपर देखना चाहती थी। हालांकि इस कार्यकालमें उनके पास ज्यादा कुछ करनेके लिए होगा नहीं। क्योंकि सरकारके पास समय कम बचा है, संभवत: अगले साल चुनाव होंगे।
भारत-नेपाल दोनों देशोंमें देउबाको सूझबूझवाला नेता कहा जाता है। उनकी सादगी लोगोंको भाती है। बेहद ईमानदारीसे अपने कामको अंजाम देते हैं। सबसे बड़ी खासियत यह है वह देशहितके सभी निर्णय सर्वसहमतिसे लेते हैं। ७५ वर्षीय देउबाका जन्म पश्चिमी नेपालके ददेलधुरा जिले एक छोटेसे गांवमें हुआ था। स्कूल-कॉलेजके समयसे ही वह राजनीतिमें थे। सातवें दशकमें वह राजनीतिमें ठीक-ठाक सक्रिय हो चुके थे। राजधानी काठमांडूकी सुदूर-पश्चिमीमें उनका आज भी बोलबाला है। छात्र समितियोंमें भी वह लोकप्रिय रहे। कॉलेजमें छात्रसंघके कई चुनाव जीते। देउबाका प्रधान मंत्री बनना भारतके लिए बेहद सुखद और चीन-पाकिस्तानके नाखुशी जैसा है। देउबाके विचार चीन और पाकिस्तानसे मेल नहीं खाते। उनका भारतके प्रति लगाव जगजाहिर है। देउबाके जरिये भारत अब निश्चित रूपसे नेपालमें चीनकी घुसपैठको रोकनेका प्रयास करेगा।