अवधेश कुमार
कांग्रेसकी दशा देखकर देशवासी हताश हैं। पार्टीके लिए चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेशोंके विधानसभा चुनाव कितने महत्वपूर्ण हैं यह बतानेकी आवश्यकता नहीं। केंद्रीय नेताओंमें केवल राहुल गांधी तमिलनाडुसे पुडुचेरी और केरलतकके चुनाव प्रचारमें दिख रहे हैं। प्रियंका वाड्रा भी असममें दिखी हैं। दूसरी ओर कांग्रेसके वरिष्ठ नेताओंके रूपमें पहचान रखनेवाले कई चेहरे एक साथ जम्मूमें एक मंचपर दिखे। उसके बाद अन्य कार्यक्रमोंमें या सोशल मीडियासे उनके विचार सुननेको मिल रहा है। जिस समय संपूर्ण पार्टीको एकजुट होकर करो या मरोकी भावनासे विधानसभा चुनाव अभियान चलाना चाहिए था उस समय इस तरहके परिदृश्य कांग्रेसके भविष्यको लेकर निराशा ही बढ़ायगा। भारतीय राजनीतिकी त्रासदी है कि लम्बे समयतक किसी पार्टीमें काम करनेवाले नेता यदि पार्टीके हितका ध्यान रखते हुए कुछ ऐसे प्रश्न उठाते हैं जो तात्कालिक नेतृत्वके थोड़ा भी विरुद्ध जाय तो उसे पार्टी विरोधी, विरोधी पार्टियोंके इशारेपर काम करनेवाला, विश्वासघाती और न जाने क्या-क्या करार दिया जाता है। कांग्रेसके अन्दर नेताओंके जिस तबकेको जी-२३ नाम दिया गया है उनमें ऐसे कौन है जिनकी पहचान एक कट्टर कांग्रेसीकी नहीं रही है। किंतु गुलाम नबी आजादके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। उन्हें पार्टीसे निकालनेकी मांग की जा रही है। कहा जा रहा है कि वे भाजपामें जानेवाले हैं। अलग-अलग राज्योंमें दूसरे नेताओंके खिलाफ भी पार्टीका एक समूह, जो दस जनपथ यानी सोनिया गांधी परिवारके प्रति निष्ठा रखता है उसका रवैया लगभग ऐसा ही है।
राज्यसभामें पार्टीके उप नेता आनन्द शर्माने पीरजादा अब्बास सिद्दीकी जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति और उनके संघटन इंडियन पीपुल्स फ्रंटके साथ गठबंधनको पार्टीके मूल सिद्धांतोंके विपरीत क्या बताया उनपर भी हमले शुरू हो गये। अधीर रंजन चौधरीने उनपर जिस तरहका जवाबी हमला किया, उनका उपहास उड़ाया, उसे दुहरानेकी आवश्यकता नहीं। कायदेसे जब ऐसे वरिष्ठ नेताओंने चुनाव, संघटनमें बदलाव, स्थायी अध्यक्ष आदिकी मांग पत्र लिखकर सार्वजनिक तौरपर की तो उसे सकारात्मक दृष्टिकोणसे लिया जाना चाहिए था। कार्यकारी अध्यक्षका दायित्व था कि कांग्रेस कार्यसमितिकी बैठक बुलाकर संघटन चुनाव, महाधिवेशन आदिकी तिथि तय करते। यदि ऐसा हुआ होता तो निश्चित रूपसे नौबत यहांतक नहीं आती। कांग्रेस इस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाहके नेतृत्ववाली भाजपासे सीधे मोर्चा लेनेमें दुर्बल साबित हो रही है। ज्यादातर चुनावोंमें कांग्रेस इनका मुकाबला करनेमें सक्षम नहीं है। इसके कारणोंकी पड़ताल करते हुए नीति, रणनीति और नेतृत्वमें आवश्यकतानुरूप बदलाव करनेका माद्दा दिखाया जाना अपरिहार्य था और है। जब ऐसा नहीं हुआ और इसकी संभावनातक नहीं दिखी तभी नेताओंका धैर्य जवाब देने लगा। यह भी विचारणीय है कि इतने वरिष्ठ नेताओंको सोशल मीडियाके माध्यमसे या फिर अन्य मंचोंसे अपनी बात क्यों रखनी पड़ रही है। यानी महत्वपूर्ण चुनावोंकी घोषणाके बावजूद कार्यकारी अध्यक्षने चुनावी अभियान और रणनीतिपर इन सबके साथ विचार-विमर्श तथा इनकी भूमिका तय करनेकी पहल नहीं की है। आखिर आजादके मार्गदर्शनमें चलनेवाले ग्लोबल गांधी संघटनकी जम्मूमें शांति सम्मेलनकी आवश्यकता क्यों पड़ी होग। यदि वे लोग चुनावमें सक्रिय होते तो उनके पास परिणाम आनेतक समय ही नहीं मिलता। इसी तरह यदि राज्योंमें गठबंधनोंपर पार्टीके अन्दर विचार-विमर्श होता तो आनन्द शर्माको ट्विटरके माध्यमसे अपनी बात रखनेकी आवश्यकता ही महसूस नहीं होती।
कांग्रेसके पास लोकसभामें जो ५३ सीटें हैं उनमेंसे २९ इन्हीं प्रदेशोंसे हैं। इन राज्योंमें कांग्रेसके विधानसभा सदस्योंकी संख्या पिछले चुनावमें १११ थी। सभी स्थानोंको मिला दे तो विधानसभा सीटोंके अनुसार कांग्रेस तीसरे तथा लोकसभाके अनुसार पहले नंबरकी पार्टी है। दक्षिणी राज्य वैसे भी संकटके समय कांग्रेसको संभालते रहे हैं। १९७७ में भले उत्तर भारतसे कांग्रेस साफ हो गयी लेकिन दक्षिण भारतने इंदिरा गांधीका साथ दिया था। यदि २००४ और २००९ में कांग्रेस अपने नेतृत्वमें यूपीएकी सरकार बना सकी तो उसके पीछे दक्षिणके राज्योंसे प्राप्त अपनी और साथी दलोंकी सीटोंका मुख्य योगदान था। आज यदि कांग्रेस संसदमें कमजोर है तो उसका कारण भी इसीमें निहित है। वस्तुत: इन चुनावोंमें हताशाको पीछे रखकर कांग्रेसको जी-जानसे जुट जाना चाहिए था। यहां सोच यह है कि एकमात्र राहुल गांधीका चेहरा ही जनता और पार्टीके सामने दिखना चाहिए। इससे भविष्यमें उनके नेतृत्वका समर्थन आधार मजबूत होगा। यानी इन राज्योंमें कांग्रेसको यदि सफलता मिलती है तो उसका पूरा श्रेय परिवारको मिलेगा। इसके बाद उनकी नेतृत्व क्षमतापर प्रश्न उठानेवालोंकी आवाजें कमजोर हो जायंगी। केरल में हमेशा लड़ाई वाम मोर्चेवाले एलडीएफ और कांग्रेसके नेतृत्ववाले यूडीएफके बीच रहा है। हर चुनावमें सत्ताकी अदला-बदली होती रही है। चूंकि इस समय वाममोर्चा सत्तामें है इसलिए कांग्रेसी नेतृत्ववाले मोर्चेके सत्तामें लौटनेकी संभावना राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारको दिख रही होगी। लोकसभा चुनावमें केरलने १५ सीटें कांग्रेसको दी। भाजपा अभी वहां इतनी मजबूत नहीं दिखती है कि कांग्रेसके सत्तामें आनेके मार्गको बाधित कर सके। असममें भी मतदाताओंके पास दो ही विकल्प हैं। या तो वे भाजपा नेतृत्ववाले गठबंधनके साथ जायं या कांग्रेस नेतृत्ववाले गठबंधनके। इसमें भी बेहतर प्रदर्शनकी उम्मीद सोनिया, राहुल और उनके रणनीतिकार कर रहे होंगे। तमिलनाडुमें सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक गठबंधनकी अलोकप्रियताका प्रमाण २०१९ लोकसभामें मिल गया था। उसे एक सीटपर सीमित होना पड़ा। शेष सारी सीटें द्रमुक गठबंधनने जीत ली। एक साथी दल होनेके नाते कांग्रेसको द्रमुकके सहारे अच्छी सीट पानेकी उम्मीद हो सकती है। इसमें सोनिया गांधी परिवारके समर्थक चाहते हैं कि अन्य नेताओंको परे रखकर राहुल गांधीको पूरे प्रदर्शनका श्रेय मिल जाय तो उनकी दृष्टिसे यह स्वाभाविक है। उम्मीदके अनुरूप परिणाम आये तो इन सारे नेताओंपर हमले होंगे तथा सोनिया, राहुल और प्रियंकाकी जय-जयकार सुनाई देगी। तात्कालिक रूपसे उनके लिए यह सही लगे, इसमें कांग्रेसका हित कतई निहित नहीं है। जब भी गहरे संकटमें फंसे तो शांत और संतुलित होकर विचार करना चाहिए कि ऐसा हुआ क्यों। आपके अन्दर समझ है और ईमानदारीसे विचार करेंगे तो सारे कारण स्पष्ट हो जायंगे। ऐसा हुआ ही नहीं। डर है कि ऐसे मंथनमें नेतृत्वकी क्षमतापर प्रश्न खड़ा होगा और जवाब देना कठिन हो जायगा। कोई भी विवेकशील और संतुलित प्रश्न नागवार गुजरेगा।
आखिर आनन्द शर्माने यही कहा है कि बंगालमें आईपीएफ या ऐसे दूसरे समूहोंके साथ गठबंधन कांग्रेसकी मूल विचारधाराके विपरीत है। आईपीएफके प्रमुख पीरजादा अब्बास सिद्दीकीके अनेक वक्तव्य सामने आये हैं जिनसे साबित हो जाता है कि उनका विचार एवं व्यवहार कट्टर मजहबी सोचसे निर्धारित है। असममें बदरुद्दीन अजमलकी एआईयूडीएफसे गठजोड़ भी इसी श्रेणीका उदाहरण है। पूर्व मुख्य मंत्री स्वर्गीय तरुण गोगोईने अपने कार्यकालमें बदरुद्दीनको कभी कांग्रेससे सटने नहीं दिया। वे उनकी सांप्रदायिक एजेंडाको भली प्रकार जानते थे। किसी तरह कुछ सीटें पा लेनेके लिए ऐसे समूहोंसे गठजोड़ करना डरावने जोखिमोंसे भरा है। आनन्द शर्माने कहा है कि गठजोड़पर विचार करनेके लिए कांग्रेस कार्यसमितिकी बैठक बुलायी जानी चाहिए थी। तरीका तो यही है। हालांकि यह नेता पहले ऐसे गठजोड़पर प्रश्न नहीं उठाते थे। इनके रहते भी सेक्यूलरवादकी परिभाषा हमेशा सुविधाओंके अनुरूप दी गयी। फिलहाल परिणाम पिछले विधानसभा चुनावोंसे बेहतर हुए तो पूरे देशमें ऐसे नेताओंको हाशियेपर डालने तथा सोनिया, राहुल एवं प्रियंकाके प्रति निष्ठा रखनेवाले लोगोंको प्रश्रय देनेकी प्रक्रिया शुरू होगी। उसमें कांग्रेसका भविष्य क्या होगा। कांग्रेसका भला नहीं होनेवाला। उसका राजनीतिक भविष्य और संकटग्रस्त होगा।