सम्पादकीय

आनलाइन शिक्षा नियमनकी दिशामें प्रयास


सत्यम पाण्डेय

कोरोनाकी वैश्विक आपदा अब अपने भयानक दौरमें प्रवेश कर गयी है। खासकर हमारा देश इस वक्त अभूतपूर्व संकटमें है। पिछले साल सितंबरमें तबतकके अधिकतम सक्रिय मरीज करीब दस लाख थे जो अब दोगुने हो गये हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत जल्दी ही यह संख्या भी द्विगुणित हो जाय। जाहिर है हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतना बड़ा बोझ उठानेके लिए सक्षम नहीं है। महामारीके पहले सालमें हमें तैयारी करनेके लिए जो समय मिला था। लापरवाह राजनीतिक नेतृत्वका नुकसान अब पूरे देशको मिलकर उठाना पड़ रहा है। इस महामारीने स्वास्थ्यके बाद शिक्षा और रोजगारको तहस-नहस किया है। शिक्षाके क्षेत्रमें भी सबसे महत्वपूर्ण संसाधनोंका अभाव है। इस बार यूनेस्कोने शिक्षाके लिए वैश्विक पहल सप्ताहकी थीम इसी बातपर केन्द्रित की है कि शिक्षापर सरकारों द्वारा खर्च की जानेवाली राशिको बढ़ाना चाहिए और जहांतक संभव हो, सबको एक समान शिक्षाके लिए प्रयास करना चाहिए। हमारे देशमें विगत आधी सदीसे लगातार यह बात उठायी जाती रही है कि देशके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कमसे कम छह प्रतिशत एवं केन्द्रीय बजटका न्यूनतम दस प्रतिशत हिस्सा शिक्षापर खर्च किया जाय।

सभी पार्टियां और सरकारें वचन देती हैं, परंतु आजतक अमलकी स्थिति यह है कि हम कभी भी चार प्रतिशतसे अधिक राशि शिक्षापर नहीं खर्च कर सके हैं। इसका सीधा परिणाम यह होता है कि लोगोंको अपनी आमदनीका एक बड़ा हिस्सा बच्चोंकी शिक्षापर खर्च करना होता है और समाजके आर्थिक रूपसे कमजोर तबके अपने बच्चोंको गुणवत्तापूर्ण शिक्षासे वंचित होते हुए देखनेके लिए अभिशप्त होते हैं। कोरोना आपदाने न केवल सालभरके लिए शालाओंको बंद कर दिया है, बल्कि आनलाइन शिक्षाके लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। नयी शिक्षा नीतिके माध्यमसे सरकार इसे पहले ही प्रस्तावित कर चुकी थी। एक तरहसे शिक्षाके व्यापारको नयी दिशा देनेमें तो यह महामारी सहायक ही साबित हुई है, लेकिन जैसा कि सालभरके अनुभवोंने साबित कर दिया है कि आनलाइन शिक्षामें शिक्षा बहुत कम है और वह ऑनलाइन बाजारमें उपलब्ध एक विक्रय वस्तुसे अधिक कुछ और नहीं है। दरअसल आनलाइन क्लासमें न शिक्षक सिखानेकी स्थितिमें रहते हैं और न बच्चे सीखनेकी। दोनों ही तरफसे यह एक समय गुजारनेकी गतिविधि बन गयी थी, क्योंकि जब लाकडाउन लगा तो इसके अलावा कोई और विकल्प ही नहीं था। फिर सालभर स्कूल खोले जाने लायक स्थितियां बन ही नहीं पायी और इस तरह पूरा सत्र ही ऑनलाइन क्लासकी भेंट चढ़ गया। जब हम बच्चों अथवा शिक्षकोंसे बात करते थे तो दोनोंका कहना यही होता था कि कक्षामें आमने-सामनेकी पढ़ाईका कोई विकल्प नहीं है। इसलिए जब मध्यप्रदेशमें बड़ी कक्षाओंको मार्गदर्शनके लिए सीमित तौरपर खोला गया तो बच्चोंका उत्साह देखते ही बनता था। इस साल फिर वही परिस्थितियां हैं। संभव नहीं दिखता कि इस सत्रमें भी स्कूल पहलेकी तरह बच्चोंके लिए खोले जा सकते हैं।

इस बार संक्रमणकी जदमें बच्चे पिछली बारसे अधिक ही हैं। क्या ऑनलाइन शिक्षाको अब एक प्रमुख माध्यमकी तरह स्वीकार कर लिया जाय अथवा और कोई रास्ते भी हैं। हर नयी तकनीकके प्रति संदेह होता ही है, लेकिन आखिरकार उसे समाज स्वीकार कर लेता है। आनलाइन शिक्षाको एकदमसे खारिज करनेकी बजाय उसके नियमनकी दिशामें प्रयास किये जाने चाहिए और खासकर शिक्षकोंका प्रशिक्षण आनलाइन कक्षाओंको बाल-मित्र बनानेके लिए किया जाना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि यह सब तात्कालिक उपाय हैं, जबकि शिक्षा राज्य और समाजसे एक दीर्घकालीन नीतिकी अपेक्षा करती है। कोरोनाकी आपदा अभी खत्म होनेवाली नहीं है, बल्कि अब शायद हमें उसके साथ जीनेकी आदत डालनी होगी। ऐसेमें कोरोनाकी आपदाके बहाने शिक्षासे संबंधित एक बड़ा सबक हमारे सामने है। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्थाकी एक बड़ी खामी निकलकर सामने आयी है और वह है शिक्षाका एक स्टेटस सिंबल या सामाजिक हैसियतमें बदल जाना। इस कारण कुछ विशेष शालाओंमें अधिकार प्राप्त लोगोंके बच्चोंका पढऩा होता है और बाकी बच्चोंके लिए सुविधाविहीन शासकीय शालाएं बचती हैं। एक तरफ बस्तीके पास एक सर्वसुविधा-युक्त निजी स्कूल मौजूद है, लेकिन बस्तीके बच्चे उसमें पढऩे नहीं जा सकते तो दूसरी तरफ सरकारी अधिकारियोंकी कालोनीके पासके सरकारी स्कूलमें वहांके बच्चे नहीं जाते। तमाम शिक्षाविद पड़ोसी स्कूलकी अवधारणापर सहमत हैं और अभीतककी सभी शिक्षा नीतियोंमें भी सिद्धांत रूपमें इसपर जोर दिया गया है, लेकिन इसपर रत्तीभर भी अमल नहीं किया गया है। कोरोना जैसी आपदाके समय यह बात बहुत बार कचोटती है कि यदि हर मोहल्लेके सभी बच्चे उस मोहल्लेके एक स्कूलमें पढ़ रहे होते तो शायद उनका पूरा शैक्षणिक सत्र इस तरहसे बेकार नहीं गया होता। संक्रमण जिस गति और तीव्रतासे आगे बढ़ रहा है उसमें हिम्मतके साथ यह स्वीकार करनेकी आवश्यकता है कि अगले पूरे सत्रमें भी शालाएं पहलेकी तरह खुल नहीं सकती हैं। इसलिए इस उपायको अमलमें लानेकी जरूरत है। संक्रमण कम होनेके बाद प्रत्येक सौ परिवारोंको एक इकाई मानकर दो शिक्षक और कुछ वॉलेंटियरोंके माध्यमसे खुले मैदानमें कक्षाएं संचालित की जानी चाहिए। बेशक अलग-अलग स्कूलों और बोर्डोंमें पढ़ रहे बच्चे वहां होंगे, लेकिन इस असाधारण परिस्थितिमें इस तरहके असाधारण प्रयोग करनेकी जरूरत है। इन सभी बच्चोंके लिए एक जैसा पाठ्यक्रम बनानेकी जरूरत होगी, जिसके लिए गर्मियोंके अवकाशमें तैयारी की जा सकती है। आगे चलकर परीक्षाका एक जैसा फार्मेट बनानेकी भी जरूरत होगी जो सभी बच्चोंके लिए सहायक हो, चाहे वह निजी शालाओंमें पढ़ रहे हों अथवा सरकारी स्कूलोंमें। हो सकता है कि मध्यमवर्गीय पालक इस सुझावपर नाक-भौं सिकोड़ें। शिक्षाकी असमानताको उन्होंने अपना जीवन-मूल्य बना लिया है, लेकिन ऑनलाइन शिक्षाके दिखावेसे अधिक बेहतर है। कालोनीके पार्कमें खेल-खेलमें शिक्षा। इससे आपके बच्चे संभावित साइबर अपराधोंसे बचेंगे और देश एक समान शिक्षाकी दिशामें एक कदम आगे चलेगा। यह न केवल कोरोनासे निबटनेकी एक रणनीति होगी, बल्कि समावेशी और जिम्मेदार लोकतंत्रकी दिशामें भी एक उठा हुआ कदम साबित होगा।