सम्पादकीय

आन्तरिक मामलोंमें बाहरी दखल


अवधेश कुमार

किसी भी देशमें आन्दोलन होता है तो कहींसे भी लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। प्रतिक्रियाएं सही हैं गलत हैं यह हमारे नजरियेपर निर्भर करता है। जिस देशका मामला होता है वह अपने तरीकेसे उसपर जवाबी प्रतिक्रियाएं देता है। यह विकसित सूचना संचारवाले वर्तमान विश्वकी सचाई है। कृषि कानूनोंके विरोधमें आन्दोलन जबसे शुरू हुआ तबसे विदेशोंसे प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं। कनाडाके प्रधान मंत्रीने आन्दोलनपर सरकारके रवैयेकी आलोचना कर दी। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और कई अन्य देशोंके कुछ सांसदोंने भी किसान आन्दोलनके मुद्दे उठाये। यह बात अलग है कि किसी देशकी सरकारने कृषि कानूनोंकी आलोचना नहीं की। सरकारकी ओरसे उन सबका उत्तर दिया गया, आम भारतीयोंने भी अपनी प्रतिक्रियाएं दी। लेकिन वर्तमान स्थिति अलग है। इनकी भाषा और विषय वस्तु अलग हैं। यह तीनों सेलीब्रिटी न आर्थिक विशेषज्ञ है, न कृषि विशेषज्ञ। इनको कृषि और खासकर भारतीय परिवेशमें कृषिके बारेमें कोई जानकारी होगी, ऐसा मानना मुश्किल है। इन्होंने तीनों कृषि कानूनोंका ठीक प्रकारसे अध्ययन किया होगा, यह भी संभव नहीं। बावजूद यदि वह कृषि कानूनोंके विरोधमें चल रहे आन्दोलनको विश्वव्यापी बनाने, उसमें लोगोंको शिरकत करनेके लिए प्रेरित करने और पूरी कार्ययोजना देनेकी सीमातक जा रही हैं तो मानना पड़ेगा कि यह सामान्य घटना नहीं है।

रिहानाने एक अखबारके लेखको ट्वीट करते हुए लिखा कि हम इसकी चर्चा क्यों नहीं कर रहे हैं। जाहिर है, अखबारका लेख उसतक पहुंचाया गया। इसी तरह ग्रेटाके ट्वीटमें आन्दोलनको लेकर पूरे कार्यक्रमकी रूपरेखा थी। ट्रोल होनेके बाद उन्होंने उसे डिलीट कर दिया। ग्रेटा थनबर्गने एक गूगल डॉक्युमेंट फाइल शेयर किया था। इसमें किसान आन्दोलनके समर्थनमें सोशल मीडिया सहित अभियानोंका पूरा विवरण था। इस फाइलको शेयर करते हुए ग्रेटाने टूलकिट शब्द प्रयोग किया। ग्रेटाने ट्वीटमें भाजपाको फासीवादी पार्टी कह दिया। इस तरहकी भाषा कोई विदेशी हस्ती प्रयोग करे तो यह संदेह स्वाभाविक रूपसे पैदा होगा कि निश्चित रूपसे कुछ लोग या कुछ समूह इसके पीछे हैं। आखिर एक किशोरावस्थाकी लड़कीके अन्दर भारतकी राजनीतिको लेकरके इस ढंगकी सोच यूं ही पैदा नहीं हो सकती। अब जरा उस फाइल की बातोंपर गौर करें। इसमें मुख्यत: पांच मुख्य लिखी गयी थीं। धरातलपर हो रहे प्रदर्शनमें हिस्सा लेने पहुंचे, किसान आन्दोलनके साथ एकजुटता प्रदर्शन करनेवाली तस्वीरें ई-मेल करें, यह तस्वीरें २५ जनवरीतक भेजें, इसके अलावा डिजिटल स्ट्राइक आस्क इंडिया ह्वाईके साथ फोटो-वीडियो मैसेज २६ जनवरीसे पहले या २६ जनवरीतक ट्विटरपर पोस्ट कर दिये जायं, ४-५ फरवरीको ट्विटरपर तूफान, यानी किसान आन्दोलनसे जुड़ी चीजों, हैशटैग और तस्वीरोंको ट्रेंड करानेके लिए तस्वीरें, वीडियो मैसेज पांच फरवरीतक भेज दिये जायं और आखिरी दिन ६ फरवरीका होगा। एक अन्य तरीका बताते हुए लिखा गया था कि अपनी सरकारों या स्थानीय प्रतिनिधिसे संपर्क करें। इससे भारतीय सरकारपर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनेगा। प्रश्न है कि इस तरह विरोधकी पूरी योजना बनायी किसने। आस्क इंडिया ह्वाई वेबसाइट एमओ मालीवाल चालाता है जो खालिस्तान सर्मथक है। उस वेबसाइटपर जाकर भारत विरोधी प्रोपोगैंडा देख सकते हैं।

दिल्ली पुलिसने किसान आन्दोलनके सन्दर्भमें सोशल मीडियाकी मानिटरिंग करते पोएटिक जस्टिस फाउंडेशनको पकड़ा था जिसमें सारे शिड्यूल थे। हमें तो इल्म भी नहीं था कि इतने सुनियोजित तरीकेसे अंतरराष्ट्रीय स्तरपर भी तैयारी की गयी है। ग्रेटाके ट्वीटके बाद २६ जनवरीकी हिंसाको लेकर संदेह ज्यादा गहरा गया है। डिलीट करनेके बाद ग्रेटा द्वारा दुबारा ट्वीट करना और फिरसे इसी तरहकी बात रखना साबित करता है कि आन्दोलनको लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तरपर भी ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जिनका उद्देश्य वह नहीं है जो वास्तविक किसान संघटनोंके नेता चाहते हैं। ग्रेटा, रिहाना, मियां खलीफा या ऐसे दूसरे लोग आन्दोलनपर कोई प्रतिक्रिया दें तो हम उससे सहमत असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस प्रकार एक अभियानका हिस्सा बनना सामान्य गतिविधि नहीं हो सकता। वैसे भी यह आन्दोलन जबसे आरम्भ हुआ, हमने विदेशोंमें भारत विरोधी शक्तियों द्वारा प्रदर्शन होते देखा है। काल्पनिक खालीस्तानके झंडे लहराये गये। यहांतक कि अमेरिकामें महात्मा गांधीकी मूर्तिको तोड़ा गया। ब्रिटेनके कुछ सांसदोंने सरकारको पत्र लिखा कि वह इसपर भारत सरकारसे बात करे। इसलिए यह माननेमें कोई हर्ज नहीं है कि कुछ ताकतें आन्दोलनका लाभ उठाकर अपना एजेंडा पूरा करनेकी कोशिशमें हैं। कह सकते हैं कि यदि कोई भारत सरकारका विरोध करता है तो वह भारतका विरोध नहीं हो सकता। यह मत एक हदतक ही ठीक है। विदेशोंमें विरोध यदि सरकारका भी हो तो उसके तौर-तरीके वाजिब होने चाहिए। कृषि कानूनोंके विरोधमें हो रहे आन्दोलनका सत्तारूढ़ पार्टी भाजपाने विरोध अवश्य किया है, सरकारने भी विरोधको अनौचित्यपूर्ण माना है लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसने आन्दोलनके खिलाफ कोई दमन चक्र चलाया है। गणतंत्र दिवसके अवसरपर ट्रैक्टर परेडके दौरान हुई हिंसाके बाद सरकारके पास बल प्रयोग कर इनको खदेड़ देनेका पूरा आधार मौजूद था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ तो फिर विदेशोंमें बैठे लोगोंको कैसे लग गया कि यह फासीवादी सरकार है जो विपरीत विचारोंको कुचलना चाहती है। उनको कहां सूझ गया कि मोदीके नेतृत्ववाली सरकार लोकतांत्रिक तरीकेसे किये जा रहे आन्दोलनका दमन रही है।

साफ है कि यह कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशानावाला मामला है। कृषि कानून हमारे देशका आन्तरिक मामला है। सरकारसे हमारे अनेक मतभेद हो सकते हैं लेकिन विदेशोंसे यदि निहित स्वार्थी तत्व या भारतके ही वे लोग, जो निहित स्वार्थोंके कारण ऐसी छवि बनानेकी कोशिश कर रहे हैं कि भारतमें एक ऐसी सरकार है जो अपने विचारोंके विरोधियोंको सहन नहीं करती, एक ही मजहबको प्रश्रय देती है, केवल पूंजीपतियोंको प्रोत्साहित करती है, किसानों, गरीबों, मजदूरोंकी विरोधी है तो इसका जोरदार प्रतिकार करना ही होगा। ग्रेटा, रिहाना एवं मियां खलीफा प्रकरणने बड़े वर्गके अन्दर यह चेतना पैदा कर दी है। उनको एकबारगी नींदसे जगा दिया है। उन्हें लग गया है कि निहित स्वार्थी समूह आन्दोलनकी आड़में अपना खेल कर रहे हैं। इतनी बड़ी संख्यामें लोगोंका इनके ट्वीटके खिलाफ सामने आना इसका प्रमाण है। इसे सुखद दौरकी शुरुआत मानना होगा। भविष्यमें ऐसे तत्वोंके खिलाफ और जोरदार प्रतिक्रियाएं होंगी। कुछ लोग तर्क देते हैं कि अमेरिकाके पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्पके समर्थकों द्वारा वहांकी संसदपर हमले करनेके विरुद्ध जब दुनियाभरमें मत व्यक्त किया गया तो उसपर किसीने आपत्ति नहीं की।

मत व्यक्त करना और लोगोंको विरोध करनेके लिए उकसाना, उसके लिए पहलेसे तैयार पूरा कार्यक्रम देना, झूठ फैलाना कि मोदी सरकार बिल्कुल किसानविरोधी है, में मौलिक अंतर है। हमारा संघ, भाजपा, नरेंद्र मोदी, अमित शाह सबसे मतभेद हो सकता है लेकिन हम सब भारतीय हैं। हमारे विरोधकी एक सीमा और मर्यादा होगी। निहित स्वार्थी तत्वोंके एजेंडेमें फंस कर हम ऐसा कुछ न करें जो कल हमारे देशके लिए अहितकर हो और हमें पछताना पड़े। ग्रेटा, रिहाना, मियां खलीफा और ऐसी दूसरी हस्तियोंको बतानेकी जरूरत है कि हमारी लड़ाई हमारेतक रहने दे। लेकिन जो नरेंद्र मोदीके प्रधान मंत्री बननेके समयसे लेकर नफरतमें देशके साथ विदेशोंमें भी इनकी छवि धूमिल करनेके लिए समस्त सीमाओंका अतिक्रमण कर रहे हैं वे इससे सहमत नहीं हो सकते। उनका एक ही लक्ष्य है, मोदी सरकारको बदनाम कर इसके खिलाफ देश और विदेशमें वातावरण बनाना जिससे इन्हें कहीं समर्थन न मिले और ये फिर सत्तामें न आयें। एक आम भारतीयके नाते चाहे वह किसी विचारधारा या दलका समर्थक हो या न हो, हर व्यक्तिको ऐसे आचरणका प्रतिकार करना चाहिए।