सम्पादकीय

इन्फ्रास्ट्रक्चर बैंक जरूरी कदम


डा. वरिन्दर भाटिया  

सन् १९९१ के आर्थिक सुधारोंके बादसे ही अबतक यह बात बार-बार दोहराई जाती रही है कि सरकारका काम व्यापार करना नहीं है। हम जानते हैं कि १९६९ में तत्कालीन सरकारने १४ बैंकोंका राष्ट्रीयकरण किया था। आरोप था कि यह बैंक देशके सभी हिस्सोंको आगे बढ़ानेकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और सिर्फ अपने मालिकोंके हाथकी कठपुतलियां बने हुए हैं। इस फैसलेको बैंक राष्ट्रीयकरणकी शुरुआत माना जाता है। हालांकि इससे पहले १९५५ में सरकार स्टेट बैंक ऑफ इंडियाको अपने हाथमें ले चुकी थी और इसके बाद १९८० में मोरारजी देसाईकी जनता पार्टी सरकारने छह और बैंकोंका राष्ट्रीयकरण किया। बैंकोंके निजीकरणके हकमें यह तर्क है कि पिछली तमाम सरकारें जनताको लुभाने या वोट बटोरनेके लिए ऐसे ऐलान करती रहीं जिनका बोझ सरकारी बैंकोंको उठाना पड़ा। कर्जमाफी इनका सबसे बड़ा उदाहरण है और इसके बाद जब बैंकोंकी हालत बिगड़ती थी तो सरकारको उनमें पूंजी डालकर फिर उन्हें खड़ा करना पड़ता था। राष्ट्रीयकरणके बाद तमाम तरहके सुधार और कई बार सरकारकी तरफसे पूंजी डाले जानेके बाद भी इन सरकारी बैंकोंकी समस्याएं पूरी तरह खत्म नहीं हो पायी हैं। निजी क्षेत्रके बैंकों और विदेशी बैंकोंके मुकाबलेमें वे पिछड़ते भी दिखते हैं, डिपॉजिट और क्रेडिट दोनों ही मोर्चोंपर। वहीं डूबनेवाले कर्जके मामलेमें वे उन दोनोंसे आगे हैं। पिछले तीन सालोंमें ही सरकार बैंकोंमें डेढ़ लाख करोड़ रुपयेकी पूंजी डाल चुकी है और एक लाख करोड़से ज्यादाकी रकम रीकैपिटलाइजेशन बांडके जरिये भी दी गयी है। अब सरकारकी मंशा साफ है। सरकार लंबी योजनापर काम कर रही है जिसके तहत पिछले कुछ सालोंमें सरकारी बैंकोंकी गिनती २८ से कम करके १२ तक पहुंचा दी गयी है। इनको भी वह और तेजीसे घटाना चाहती है। कुछ कमजोर बैंकोंको दूसरे बड़े बैंकोंके साथ मिला दिया जाय और बाकीको बेच दिया जाय, यही फॉर्मूला है। इससे सरकारको बार-बार बैंकोंमें पूंजी डालकर उनकी सेहत सुधारनेकी चिंतासे मुक्ति मिल जायगी। ऐसा विचार पहली बार नहीं आया है। पिछले बीस सालमें कई बार इसपर चर्चा हुई है। लेकिन पक्ष-विपक्षके तर्कोंमें मामला अटका रहा। बैंकोंके निजीकरणके पक्षमें कहा जा रहा है कि भारतमें निजी और सरकारी बैंकोंकी तरक्कीकी रफ्तारका मुकाबला करें तो निजी बैंकोंने करीब-करीब हर मोर्चेपर सरकारी बैंकोंको पीछे छोड़ रखा है। लेकिन बैंक कर्मचारी और अधिकारी इस तर्कको पूरी तरह बेबुनियाद मानते हैं। उनका कहना है कि बैंक राष्ट्रीयकरणके समय ही साफ था कि प्राइवेट बैंक देशहितकी नहीं, अपने मालिकके हितकी ही परवाह करते हैं। इसीलिए यह फैसला न सिर्फ कर्मचारियोंके लिए, बल्कि पूरे देशके लिए खतरनाक है। पिछले कुछ सालोंमें कुछ निजी बैंकोंकी गड़बडिय़ां सामने आयीं। उससे यह तर्क भी कमजोर पड़ता है कि निजी बैंकोंमें बेहतर काम होता है। यह भी सच है कि जब कोई बैंक पूरी तरह डूबनेकी हालतमें पहुंच जाता है, तब सरकारको ही आगे आकर उसे बचाना पड़ता है और तब यह जि़म्मेदारी किसी न किसी सरकारी बैंकके ही मत्थे मढ़ी जाती है। यही वजह है कि आजादीके बादसे आजतक भारतमें कोई शिड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक डूबा नहीं है। बैंक यूनियनें निजीकरणके फैसलेका विरोध कर रही हैं कि डूबे कर्जोंकी वसूलीके लिए कठोर कानूनी काररवाई करनेकी जगह आईबीसी जैसे कानून बनाना भी एक बड़ी साजिशका हिस्सा है, क्योंकि इसमें आखिरकार सरकारी बैंकोंको अपने कर्जपर हेयरकट लेने यानी मूलसे भी कम रकम लेकर मामला खत्म करनेको राजी होना पड़ता है। बैंकिंग विश्लेषकोंके अनुसार सार्वजनिक बैंकोंको वित्तीय वर्ष २०२०-२१ में नियामकीय शर्त पूरी करनेके लिए अर्थात बैंकोंके परिचालनके लिए कमसे कम ५० हजार करोड़ रुपयेकी जरूरत होगी। सरकारने अभीतक सार्वजनिक बैंकोंके पुनर्पूंजीकरणके लिए कोई घोषणा नहीं की है। सरकारके पास फंडकी कमी है। जो सार्वजनिक बैंक बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, सरकार उन सार्वजनिक बैंकोंकी हिस्सेदारी बेचनेके लिए निजीकरणके प्रस्तावपर काम कर रही है। जो बैंक नियामकीय शर्तको पूरी नहीं कर पायंगे उन बैंकोंका परिचालन रुक जायगा और सरकार ऐसे कमजोर बैंकोंका निजीकरण करती चली जायगी। सार्वजनिक बैंकोंमें यदि सरकारको अपनी हिस्सेदारी ५० फीसदीसे कम करनी हो या निजीकरण करना हो तो सरकारको पहले बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियममें संशोधन करना होगा। वह है काफी सारे सार्वजनिक बैंकोंका निजीकरण करना समस्याका समाधान नहीं है। निजीकरणमें इन बैंकोंका एनपीए बहुत बड़ी बाधा है। रिजर्व बैंकके अनुसार सितंबर २०२० में पूरे बैंकिंग सिस्टमका ग्रॉस एनपीए कुल कर्जका ७.५ फीसदी था। कोरोना लॉकडाउनके कारण अर्थव्यवस्थामें जो सुस्ती आयी उससे सितंबर २०२१ में एनपीए रिकॉर्ड १३.५ फीसदीतक जा सकता है। परिस्थितियां खराब रहीं तो यह १४.८ फीसदीतक भी चला जायगा। सरकारी बैंकोंका एनपीए तो १६.२ फीसदीतक पहुंच जानेका अंदेशा है जो सितंबर २०२० में ९.७ फीसदी था। रिजर्व बैंककी ही केवी कामत कमेटीका आकलन है कि कोविड-१९ के चलते १५.५२ लाख करोड़ रुपयेके कर्ज एनपीए बन सकते हैं। कोविडसे पहले भी २२.२० लाख करोड़के कर्ज फंसे हुए थे। इस तरह उद्योग जगतको बैंकोंकी तरफसे दिये गये कुल कर्जका ७२ फीसदी फंसनेका खतरा है।

क्या निजीकरणसे यह बाधा छिप जायगी, इसपर विचार करना जरूरी है। बैंकोंके राष्ट्रीयकरणके बाद भी निजी क्षेत्रके बैंक दिवालिया हुए थे और उनका सार्वजनिक क्षेत्रके बैंकोंमें विलय किया गया था। निजीकरणके दरवाजेपर बैठे सरकारी बैंकोंकी वर्तमान समस्या प्रशासन और नियामक ढांचेमें व्याप्त विसंगतियोंके कारण है। सार्वजनिक बैंकोंमें दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जानेकी जरूरत है। आज बैंकिंग उद्योगको सिर्फ निजीकरणकी जरूरत नहीं, बल्कि सार्वजनिक बैंकोंके कामकाजकी पारदर्शिता, प्रभावी विनियमन, सुपरविजन और बेहतर मैनेजमेंटकी जरूरत है जिससे बैंकोंके बढ़ते एनपीएपर नियंत्रण हो सके और उनकी वसूली हो सके। बैंकिंग क्षेत्रपर सरकार और आरबीआईका दोहरा नियंत्रण भी एक समस्या है। नरसिम्हन समितिने बीस वर्ष पहले ही इसकी सिफारिश की थी कि बैंकोंपर दोहरा नियंत्रण समाप्त होना चाहिए, लेकिन हमारे देशमें इसपर ध्यान नहीं दिया गया। सरकारी बैंकोंकी वर्तमान परिचालन व्यवस्थामें बहुत सुधारकी आवश्यकता है ताकि निजीकरण जैसी अवांछित सरकारी मजबूरी पैदा न हो। सरकारी बैंकोंके बोर्डमें पेशेवर निदेशक होने चाहिए और इन निदेशकोंको स्वतंत्र रूपसे निर्णय लेनेका अधिकार होना चाहिए जिससे इनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।