सम्पादकीय

धर्मनिरपेक्षताकी अवधारणा


 राघवेन्द्र सिंह

जबसे तथाकथित सेकुलरवादकी अवधारणा उधार ली गयी, दोमें उक्त विषयको लेकर समस्याएं ही नजर आने लगी तथा धर्मनिरपेक्ष अर्थात् सेकुलर कहलानेको समाजका एक वर्ग ऊटपटांग हरकते करते नजर आने लगा। जो विचार यूरोपसे रिलीजनके नामसे जाना गया, भारतमें ऐसी कोई चीज थी ही नहीं। हमारे यहां जिसे धर्म कहते थे, वैसा विचार किसी अन्य धर्म, पंथ या सम्प्रदायमें था ही नहीं, इसलिए पश्चिमी भाषाओंमें धर्मकी अवधारणाको लेकर वास्तवमें कोई शब्द नहीं है तथा यूरोपीय सेकुलरिज्मके लिए हमारी भाषामें कोई भी शब्द नहीं मिलता। यूरोपमें चौथीसे लेकर आठवीं शताब्दीके मध्य चर्च और राज्यके मध्य गहरा सम्बन्ध था। दोनों मिलकर व्यक्तिके इस लोक तथा परलोकपर नियंत्रण रखते थे। चर्चके नाराज होनेपर किसी व्यक्तिको जिन्दा जलानेतककी सजा दी जाती थी। राजा मानता था, राजा चर्चकी सेवाके लिए है। जबतक यूरोपमें ऐसे लोग बचे जो अन्य सम्प्रदायके थे तबतक चर्च तथा राज्यका गठजोड़ खूब चलता रहा, लेकिन पन्द्रहवीं शताब्दीतक पूरा यूरोप इसाई बन चुका था। अब चर्चके हस्तक्षेपसे राजाओंको कठिनाई होने लगी, उसके बाद चर्चकी मनमानियोंको लेकर यूरोपमें जगह-जगह आन्दोलन होने लगे तथा विद्रोहके स्वर उठने लगे, उसी समय यूरोपमें अनेक चिन्तक भारत तथा चीन जैसी प्राचीन संस्कृतियोंसे सम्पर्कमें आये, इससे उन्हें मानवताके नये विचार प्राप्त हुए, उससे मतवादके विरुद्ध वैचारिक विद्रोहका सूत्रपात हुआ। जल्द ही इसाई मतवादको मैदान छोडऩा पड़ा। अन्तत: १९वीं शताब्दीतक यूरोपीय राज्य चर्चके दबदबेसे मुक्त हो गया।

स्वतन्त्र भारतमें सेकुलर या धर्मनिरपेक्षताका कैसे अनर्थ हुआ, स्वधीनता आन्दोलनके सम्पूर्ण कालमें हमारे किसी चिन्तक सामाजिक संघटन या नेताके विचारोंमें सेकुलर शब्दका प्रयोग नहीं मिलता। फिर स्वतन्त्र भारतमें वही शब्द संविधानके ऊपर भी एक तरहका सुपर विधान कैसे बन बैठा। स्वतन्त्रताप्राप्तिके समय हमारे देशमें रिलीजन शब्दका अस्तित्व था, जिसकी जकड़से मुक्तिके लिए सेकुलरिज्म शब्दका प्रादुर्भाव हुआ। हमारे देशमें भी चर्चने गोवा जैसे कुछ राज्योंमें शक्तिके प्रयोगसे लोगोंको घेरेमें लेनेके लिए हर तरहके प्रयोग किये। इस संदर्भमें ही समझा जा सकता है कि हमारे देशमें अन्य धर्म आनेसे पहले राज्य सत्ताएं स्वाभाविक रूपसे ही तथाकथिक सेकुलर रही हैं। वह जानती भी नहीं थी कि ऐसे भी राज्य हो सकते हैं जो बुद्धि-विवेकसे परे जबरन कोई मत विश्वास फैलानेका कार्य भी कर सकती है।

आजादीके बाद संविधान सभामें कथाकथित धर्मनिरपेक्षतापर खाली चर्चा की गयी, उस समय स्वीकार की गयी संविधानकी प्रस्तावनामें भी भारतको धर्मनिरपेक्षके रूपमें परिभाषित नहीं किया गया। हालांकि सविधानकी बुनियाद उपरोक्त धर्मनिरपेक्षतापर ही टिकी है। हालांकि संवैधानिक प्रावधानोंमें आश्वस्त किया गया कि नागरिक किसी भी धर्मको मानने या न माननेके लिए स्वतन्त्र होगा। देशके नागरिकोंका विवेक तथा तय करनेका अधिकार या जबरन दबानेका अधिकार न राज्यके या न ही किसी संस्थानके पास होगा। साथ ही विभिन्न धर्माम्वलम्बियोंको कानूनके तहत अपनी गतिविधियां चलानेका पूर्ण अधिकार होगा। लेकिन उन्हें संविधान द्वारा निर्धारित कुछ वाजिब प्राविधानोंका अनुपालन करना होगा। भारतीय सभ्यतामें जो भी धर्म विकसित हुए उनमें कोई धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है, उससे अलग होनेका तात्पर्य प्रकृति तथा समाजके प्रति दायित्व बोधसे नजरें फेर लेना होगा। आजादीके बाद हमारे राजनेताओंकी भी सोच थी कि यूरोप तथा अमेरिकाकी तरह हमें भी आगे बढऩा है तो स्वयंको धर्मसे अलग करना पड़ेगा।

वास्तवमें आजका भी सच यही है। हमने अंग्रेजोंसे आजादी अवश्य पा ली लेकिन विकास एवं सेकुलरवादके नामपर गुलामीको अपना लिया, उन्होंने हमारी निष्ठïाओं, परम्पराओंको नष्टï करनेके लिए भरपूर कोशिश की, लेकिन देशका एक बड़ा वर्ग उनके विकासके पैमानेके अनुसार गरीब होते हुए भी अपने सभ्यता, आस्था तथा परम्पराओंको लेकर पूरी तरह स्वाभिमानी था। उसने उनके खिलाफ मुक्ति संघर्षको लेकर सामूहिक चेतनाकी मुख्य भूमिका थी। अंग्रेजोंकी गुलामी जिसे समाप्त करनेकी कोशिश करती रही, लेकिन नाकामयाब रही, लेकिन हमने उसे स्वयं नष्टï कर दिया। हमारा महान सभ्यतावाला देश जिसके बारेमें महात्मा गांधी, विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द सबने कहा था कि यह उच्च सभ्यतावाला देश अपनी सभ्यताके बदौलत पश्चिमके औद्योगिक सभ्यतासे निकले भौतिकवादकी अमानवीयताको रास्ता दिखायेगा। वह स्वयं मानसिक गुलामी तथा बौद्धिक दिवालियेपनका शिकार हो गया।

भारतीय सभ्यतामें मनुष्य, प्रकृति तथा सम्पूर्ण ब्रह्मïांणके बीच सम्बन्ध है। यही धार्मिकता थी। पश्चिमकी तरह इसे अलग-अलग नहीं देखा गया। इसलिए हमारा जीवन धार्मिकता तथा सेकुलरके बीच कभी नहीं बंटा। पश्चिमका विकास तथा सेकुलर चिन्तनने मनुष्यको एक राजनीतिक तथा आर्थिक जीत मान लिया, जबकि भारतीय सभ्यतामें मनुष्यको पूर्णतामें देखा गया। यही मौलिक अन्तर हमारे नेता आजतक नहीं समझ सके। गांधी जीका बार-बार नाम लेनेवाले क्यों नहीं समझ पाते हैं कि उन्होंने पश्चिमकी भोगवादी औद्योगिक सभ्यताके विकल्पमें स्वराज्यकी कल्पना की। जो स्वधर्मपर आधारित थी। एक महान सभ्यता और जीवान्त दृष्टिïवाला देश अपने धर्मके मामलेपर हीनभावनासे ग्रस्त होकर पश्चिम देशोंका नकलची बनकर रह गया। अत: हमें यह प्रचारमें नहीं जाना चाहिए, धर्मनिरपेक्षतापर खतरा है। हमारे देशके डीएनएमें ही कथाकथित धर्मनिरपेक्षता न होकर पंथनिरपेक्षता है। जरा उन देशोंको देखें जिनको देखकर हमने सेकुलरकी अवधारणा उधार ली है। उनके यहां किस तरहके अमानवीय व्यवहार होते थे तथा आज भी होते हैं। कम्युनिज्म तथा फासिज्म दोनों ही अन्य विचारधाराओंके साथ किस प्रकार जुल्म किये हैं। उन्होंने अपने फैलावको लेकर एशिया, अफ्रीका, अमेरिका ही नहीं अन्य संस्कृतियोंको भी नष्टï करनेका यत्न ही नहीं किया, बल्कि किया भी। लातिन अमेरिकामें किस तरह आदिवासियोंका विनाश किया गया, जिसको सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षताको लेकर भारतीय विचार सर्वधर्म समभावके रूपमें मुखर हुआ। जिससे ऐसे भाव निकलकर आते हैं कोई धर्म बुरा नहीं है। सहिष्णुता तथा सर्वधर्म समभाव कबीर, रैदास, तुकाराम, मीराबाई जैसे निजामुद्दीन औलिया, बाबा फरीद, बुल्लेशाह जैसे सूफी सन्तों तथा उन जैसे अनेक सन्तोंसे मिली विरासत है। आज हमारे पास ऐसी मिली-जुली विरासत उपलब्ध है जो विभिन्न संस्कृतियों, धार्मिक परम्पराओंसे तैयार हुई है। अत: हमें उधारकी धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) जैसी संस्कृतिकी आवश्यकता नहीं है।