सम्पादकीय

नयी शिक्षा नीतिकी चुनौती


डा.वरिंदर भाटिया  

नयी शिक्षा नीति २०२० एक पॉलिसी डाक्यूमेंट है जिसमें सरकार शिक्षाके क्षेत्रमें देशकी दशा और दिशा तय करेगी। हालांकि राज्य सरकारें इसे पूरी तरह माननेके लिए विवश नहीं है। जहां कहीं टकराव वाली स्थिति होती है, दोनों पक्षोंको आम सहमतिसे इसे सुलझानेका सुझाव दिया गया है। नयी शिक्षा नीति २०२० से जुड़ी बुनियादी जानकारीको लेकर आम आदमीके शकको दूर करना सामयिक है। सबसे पहले स्कूली शिक्षामें किये गये बेसिक बदलावको शिक्षाजगतको समझनेकी जरूरत है ताकि इससे जुड़े संशय कम हो सकें। नयी शिक्षा नीतिमें पहले जो दस जमा दोकी परंपरा थी, अब वह खत्म हो जायगी। अब उसकी जगह सरकार पांच प्लस तीन प्लस तीन प्लस चारकी बात कर रही है। इसमें पांचका मतलब है तीन साल प्री-स्कूलके और क्लास एक और दो, उसके बादके तीनका मतलब है क्लास तीन, चार और पांच उसके बादके तीनका मतलब है क्लास छह, सात और आठ और आखिरके चारका मतलब है क्लास नौ, दस, ११ और १२। यानी अब बच्चे छह सालकी जगह तीन सालकी उम्रमें फॉर्मल स्कूलमें जाने लगेंगे। अबतक बच्चे छह सालमें पहली क्लासमें जाते थे तो नयी शिक्षा नीति लागू होनेपर भी छह सालमें बच्चा पहली क्लासमें ही होगा, लेकिन पहलेके तीन साल भी फॉर्मल एजुकेशनवाले ही होंगे। प्ले-स्कूलके शुरुआती साल भी अब स्कूली शिक्षामें जुड़ेंगे। इसका मतलब ये कि अब राइट टू एजुकेशनका विस्तार होगा। पहले छह सालसे १४ सालके बच्चोंके लिए आरटीई लागू किया गया था।

अब तीन सालसे १८ सालके बच्चोंके लिए इसे लागू किया गया है। ये फार्मूला सरकारी और प्राइवेट सभी स्कूलोंपर लागू होगा। इसके अलावा स्कूली शिक्षामें एक और महत्वपूर्ण बात है भाषाके स्तरपर। नयी शिक्षा नीतिमें तीन लैंग्वेज फार्मूलेकी बात की गयी है, जिसमें कक्षा पांचतक मातृभाषा, लोकल भाषामें पढ़ाईकी बात की गयी है। साथ ही यह भी कहा गया है कि जहां संभव हो, वहां कक्षा आठतक इसी प्रक्रियाको अपनाया जाय। प्राथमिक शिक्षाको इस नयी पॉलिसीमें काफी अहमियत दी गयी है। यह अच्छी बात है क्योंकि पहलीमें बच्चा सीधे स्कूलमें आता था तो उस वक्त वह दिमागी तौरपर पढऩेके लिए तैयार नहीं आता था। तीन सालके प्री-स्कूलके बाद यदि अब वह पहलीमें आयगा तो मानसिक तौरपर सीखनेके लिहाजसे पहलेके मुकाबले ज्यादा तैयार होगा। मातृभाषामें पढ़ानेको भी एक अच्छा कदम माना जा सकता है। छोटा बच्चा दुनिया घूमा नहीं होता, ज्यादा जबान नहीं समझता तो घरकी भाषाको स्कूलकी भाषा बनाना बहुत लाभदायक होगा। संस्कृत भाषाके साथ तमिल, तेलुगू और कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओंमें पढ़ाईपर भी जोर दिया गया है। लेकिन तीन लैंग्वेज फार्मूलामें यह कहीं नहीं लिखा है कि ऐसा करना राज्य सरकारोंके लिए बाध्य होगा। ऐसा भी नहीं है कि बच्चे अंग्रेजी नहीं पढ़ पायंगे। इसमें केवल यह बात है कि तीन भाषाओंमेंसे दो भाषा भारतीय हो। जहां मातृभाषामें पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं, वहां मातृभाषामें किताबें छापनेका प्रस्ताव भी दिया गया है। स्कूली शिक्षामें तीसरी बात बोर्ड परीक्षामें बदलाव की है। पिछले दस सालोंमें बोर्ड एग्जाममें कई बदलाव किये गये।

कभी दसवींकी परीक्षाको वैकल्पिक किया गया, कभी नबंरके बजाय ग्रेड्सकी बात की गयी। लेकिन अब परीक्षाके तरीकेमें बदलावकी बात नयी शिक्षा नीतिमें की गयी है। बोर्ड एग्जाम होंगे और अब दो बार होंगे। लेकिन इनको पास करनेके लिए कोचिंगकी जरूरत नहीं होगी। परीक्षाका स्वरूप बदलकर अब छात्रोंकी क्षमताओंका आकलन किया जायगा, न कि उनकी याददाश्तका। केंद्रकी दलील है कि नंबरोंका दवाब इससे खत्म होगा। इन बोर्ड परीक्षाओंके अतिरिक्त राज्य सरकारें कक्षा तीन, पांच और आठमें भी परीक्षाएं लेंगी। इन परीक्षाओंको करवानेके लिए गाइड लाइन बनानेका काम नयी एजेंसीको सौंपा जायगा, जो शिक्षा मंत्रालयके अंतर्गत ही काम करेगी। नयी शिक्षा नीतिमें अंडर ग्रेजुएट कोर्समें दाखिलेके लिए नेशनल टेस्टिंग एजेंसीसे परीक्षा करानेकी बात कही गयी है। साथ ही रीजनल स्तरपर, राज्य स्तरपर और राष्ट्रीय स्तरपर ओलंपियाड परीक्षाएं करानेके बारेमें भी कहा गया है। आईआईटीमें प्रवेशके लिए इन परीक्षाओंको आधार बनाकर छात्रोंको दाखिला देनेकी बात की गयी है। उसी तरहसे मेडिकल कोर्समें आमूलचूल बदलावकी बात की गयी है। कोई भी नयी यूनिवर्सिटी केवल एक विषय विशेषकी पढ़ाईके लिए आगेसे नहीं बनायी जायगी। २०३० तक सभी यूनिवर्सिटीमें अलग-अलग स्ट्रीमकी पढ़ाई एक साथ करायी जायगी। मेडिकलकी पढ़ाईके लिए अलग एक्रिडेशन पॉलिसी बनानेकी बात नयी शिक्षा नीतिमें कही गयी है। इसी तरहके बदलाव उच्च शिक्षामें भी किये गये हैं। अब ग्रेजुएशन (अंडर ग्रेजुएट) में छात्र चार सालका कोर्स पढ़ेंगे, जिसमें बीचमें कोर्सको छोडऩेकी गुंजाइश भी दी गयी है।

पहले सालमें कोर्स छोडऩेपर सर्टिफिकेट मिलेगा, दूसरे सालके बाद एडवांस सर्टिफिकेट मिलेगा और तीसरे सालके बाद डिग्री और चार साल बादकी डिग्री होगी शोधके साथ। उसी तरहसे पोस्ट ग्रेजुएटमें तीन तरहके विकल्प होंगे। पहला होगा दो सालका मास्टर्स, उनके लिए जिन्होंने तीन सालका डिग्री कोर्स किया है। दूसरा विकल्प होगा चार सालके डिग्री कोर्स शोधके साथ करनेवालोंके लिए। यह छात्र एक सालका मास्टर्स अलगसे कर सकते हैं और तीसरा विकल्प होगा, पांच सालका इंटिग्रेटेड प्रोग्राम, जिसमें  ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन दोनों एक साथ ही हो जाय। अब पीएचडीके लिए चार सालकी डिग्री शोधके साथ अनिवार्यता होगी। एमफिलको नयी शिक्षा नीतिमें बंद करनेका प्रावधान है। उच्च शिक्षा संस्थानोंको ग्रांट देनेका काम हायर एजुकेशन ग्रांट्स कमिशन करेगा। इसके अलावा इन संस्थाओंके अलग-अलग विभागोंके लिए नियम, कानून और गाइड लाइन तैयार करनेकी जिम्मेदारी होगी। इस नयी शिक्षा नीतिको मूलत: तीन बिंदुओंसे परखनेकी भी जरूरत है। पहला, क्या इससे शिक्षामें कॉरपोरेटाइजेशनको बढ़ावा मिलेगा। दूसरा, क्या इससे उच्च शिक्षाके संस्थानोंमें अलग-अलग जातियां बन जायंगी और तीसरा संशय अति-केंद्रीकरणका है। अतीतको देखें तो अक्सर शिक्षासे जुड़ी नीतियां कागजपर तो अच्छी लगती हैं, लेकिन क्या यह समयबद्ध तरीकेसे लागू हो पायंगी, यह बड़ी चुनौती होगी।