सम्पादकीय

शैक्षणिक व्यवस्थाका सूत्रधार


 डा. शंकर सुवन सिंह 

मनुष्य सभी प्राणियोंमें सर्वश्रेष्ठ है, अन्य प्राणियोंकी मानसिक शक्तिकी अपेक्षा मनुष्यकी मानसिक शक्ति अत्यधिक विकसित है। मनुष्यके पास प्रचुर मात्रामें ज्ञान होता है। इस ज्ञानका उपयोग देशकी सेवामें लगाना चाहिए। तभी मनुष्यका जीवन सफल हो सकता है। मनुष्य कौन है। इस बातका उसे अध्ययन करना चाहिए और इस बातके लिए सदैव उसे प्रयासरत रहना चाहिए कि वह कौन है। उसका अस्तित्व क्या है। यदि संतजनोंकी माने तो मनुष्य वह है जो इस संसारको धर्मशाला समझे और अपने आपको उसमे ठहरा हुआ यात्री। इस प्रकार कर्म करते हुए वह कर्मके बंधनोंमें न ही बंधेगा और न ही उसमे विकार भाव उत्पन्न होंगे। ज्ञान रूपी स्तम्भ जीवन को गति और सही दिशा की ओर अग्रसर करते हैं। ज्ञान गुरुओंके द्वारा दिया जाता है। गुरुके बिना कोई भी समाज शिक्षित नहीं हो सकता है। मकान एवं स्तम्भ दोनोंका आधार गुरु है। कहनेका तात्पर्य बिना गुरुके ज्ञानका कोई अस्तित्व नहीं। ऋषि भृर्तहरिके शब्दोंमें मनुष्योंकी पहचान यह है कि वह साहित्य, संगीत एवं कलाका आनन्द लेना जानता हो। यदि नहीं जानता तो वह बिना पूंछ-सींगका साक्षात पशु है। भारतीय संस्कृति एक सतत संगीत है। आधुनिक कालमें मनुष्य अपने ज्ञानका दुरुपयोग कर रहा है। उसने अपनी सभ्यता एवं प्राचीन संस्कृतिको खो दिया है।

शिक्षा देनेवालेको शिक्षक (अध्यापक) कहते हैं। शिक्षकके द्वारा व्यक्तिके भविष्यको बनाया जाता है एवं शिक्षक ही वह सुधार लानेवाला व्यक्ति होता है। प्राचीन भारतीय मान्यताओंके अनुसार शिक्षकका स्थान भगवानसे भी ऊंचा माना जाता है क्योंकि शिक्षक ही हमें सही या गलतके मार्गका चयन करना सिखाता है। संत कबीर दासजीने एक दोहेमें गुरुकी महिमाका वर्णन किया है। वह कहते हैं कि जीवनमें कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तब पहले किन्हें प्रणाम करना चाहिए। गुरुने ही गोविन्दसे हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरुका स्थान गोविन्दसे भी ऊंचा है। एक शिक्षकको भिन्न-भिन्न नामोंसे जाना जाता है जैसे- टीचर, अध्यापक, गुरु, आचार्य आदि। आज-कलके गुरु अधिकांशत: धन कमानेमें लगे हुए हैं। गुरु ज्ञानका प्रतीक होता है। आज-कल गुरु धनके प्रतीक बनते जा रहे हैं। विश्वविद्यालयोंमें किसी भी कॉलेजके डीन-अधिष्ठाताका मौलिक कर्तव्य है कि वह अपने किसी भी कर्मचारीके साथ दुव्र्यवहार न करे। वह सतत कर्म करनेवाले गुरुओंका सम्मान करे। उनका अपमान नहीं। डीनका कर्तव्य है वह उन गुरुओंको नियंत्रित करे जो टीचिंग प्रोफेशनके साथ धन कमानेका कार्य करते हैं। जो गुरु धन कमानेपर ध्यान केंद्रित करेगा वह न तो कभी क्लास लेगा, न ही कभी ज्ञान कि बातें करेगा। ऐसे गुरु लोग, सतत कार्य करनेवाले गुरुओंपर छींटाकशी करते हैं।

परिणामत: सतत कार्य करनेवाले गुरुओंका मनोबल गिरता है। विश्वविद्यालयोंमें शैक्षणिक कार्य करनेवाले गुरु लोग अपनी प्राइवेट लैब चला रहे हैं। प्राइवेट कोचिंग चला रहे हैं। ऐसे शिक्षक छात्रोंपर दवाब बनाकर अपनी लैब, अपनी कोचिंगमें बुलाकर धन उगाहीका काम करते हैं। जबकि सभी विश्वविद्यालयोंमें लैबकी व्यवस्था होती है तो कैसे एक टीचर अपनी प्राइवेट लैब खोलकर छात्रोंपर दवाब बना सकता है।

विश्वविद्यालयोंके कुलपतियोंको चाहिए कि वह ऐसे अकर्मण्य, लालची टीचरों एवं डीनको चिह्निïत कर उनके खिलाफ काररवाई करें और उनको सख्तसे सख्त सजा दें। एक शिक्षकका धन कमानेके उद्देश्यसे प्राइवेट लैब खोलना, कोचिंग खोलना, अन्य प्रकारके बिजनेस करना और अपने धंधेको बढ़ानेके लिए छात्रोंपर दवाब बनाना आदि विश्वविद्यालयोंके शैक्षणिक स्तरको गिराती हैं। महान संत कबीरने कहा था, कबीरा ते नर अंध है, गुरुको कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥ अर्थात्ï वह लोग अंधे हैं जो गुरुको ईश्वरसे अलग समझते हैं। यदि भगवान रूठ जाय तो गुरुका आश्रय है परन्तु यदि गुरु रूठ गये तो कहीं शरण नहीं मिलेगा। आजकल तो अधिकांशत: गुरु लोग इस दोहेका गलत प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे शिक्षक, गुरु होनेकी आड़में अपराध कर रहे हैं। ऐसे शिक्षक मानवताको कलंकित करते हैं। शिक्षा समाजका दर्पण है। इस परिपेक्ष्यमें शिक्षाका बहुजन हिताय स्वरूप प्रधान होकर गरीब तथा वंचित वर्गका नेतृत्व करता दिखाई देता है। यदि विश्वविद्यालयोंमें पढ़ानेवाले शिक्षक ही भक्षक बन जायंगे तो समाजमें समता नहीं विषमता पैदा होगी।

ऐसे ही शिक्षकों द्वारा पढ़ाये गये बच्चे अपराधको जन्म देते हैं। इस प्रकार कि शिक्षासे मानवतापर कुठाराघात हो रहा है। विश्वविद्यालयोंमें शैक्षिक प्रबंधन अच्छा नहीं है। शिक्षा (एजुकेशन) बालककी जन्मजात शक्तियोंका स्वाभाविक, समन्वित एवं प्रगतिशील विकास है। शिक्षा व्यक्तिका ऐसा पूर्ण विकास है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी पूरी क्षमतासे मानव जीवनके लिए अपनी मौलिक भूमिका प्रदान करते है। शिक्षा किसी राष्ट्र अथवा समाजकी प्रगतिका मापदंड है। जो राष्ट्र शिक्षाको जितना अधिक प्रोत्साहन देता है वह उतना ही विकसित होता है। किसी भी राष्ट्रकी शिक्षा नीति इसपर निर्भर करती है कि वह राष्ट्र अपने नागरिकोंमें किस प्रकारकी मानसिक अथवा बौदधिक जागृति लाना चाहता है। जिस दिनसे शिक्षक सुधरेंगे उसी दिनसे शिक्षाका स्तर सुधर जायगा।

शिक्षा और शिक्षक एक-दूसरेके पूरक हैं। अतएव राष्ट्रीय शिक्षा नीतिमें शिक्षापर कुठाराघात करनेवाले शिक्षकोंके लिए दंडका प्रावधान होना चाहिए। भारत सरकारने नयी शिक्षा नीतिमें आधुनिक संसाधनों जैसे आकाशवाणी, दूरदर्शन एवं कंप्यूटर आदिके प्रयोगपर विशेष बल दिया गया है। इन संसाधनोंके प्रयोगको और भी अधिक व्यापक बनाने हेतु प्रयास जारी हैं। सरकार विश्वविद्यालयोंके लिए बहुत कुछ करती है जहांपर छात्र अपनी फीसका पूरा सदुपयोग कर सकता है। फिर भी आजके अधिकांश शिक्षक अपनी प्राइवेट लैब, कोचिंग आदिका प्रयोग कर छात्रोंसे पैसा वसूलते हैं। ऐसा कृत्य जघन्य अपराधकी श्रेणीमें आना चाहिए। अकर्मण्य, लालची शिक्षककी वजहसे राष्ट्रमें कोई भी शिक्षा नीति सफल नहीं हो सकती। शिक्षक राष्ट्रके विकासमें अहम् भूमिका निभाता है। अतएव हम कह सकते हैं कि शिक्षक, शैक्षणिक व्यवस्थाका सूत्रधार है।