सम्पादकीय

पछतावा 


अरुण सहगल

जीवन एक ऐसा अनुभव है जो हमें मिला-जुला अहसास करवाता है। बहुतसे लोगोंके लिए यह उपलब्धियां और अवसर लेकर आता है तो कुछ ऐसे भी हैं जो इन अवसरोंको खो देनेका दुख या पछतावेको पूरी जिंदगी संभावल कर रखते हैं। वे इन नकारात्मक भावनाओंका बोझ ताउम्र ढोते ही रह जाते हैं। लेकिन इन सभीके बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ईश्वरको उनके दिये हुए हर लम्हेके लिए धन्यवाद देते हैं। वे किसी प्रकारका कोई पछतावा नहीं करते और न ही उन्हें कोई दुख सताता हैं। वे इस बातपर भरोसा करते हैं कि जो हुआ वह ईश्वरकी ही मर्जीसे हुआ। हालांकि बहुतसे लोगोंको लगता है कि पछतावा एक प्राकृतिक भावना है। वह व्यक्तिके भीतर मौलिक रूपसे विद्यमान रहती है। लेकिन वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं इन्हें लगता है अतीतपर पछतावा न करना या वर्तमानकी प्रतिकूल स्थितिका दुख न मनाना भी उतना ही मौलिक है। दरअसल पछतावा करना हमें मानसिक और शारीरिक ऊर्जाविहीन बना देता है। पछतावा और चिन्ताके बीच एकमात्र अंतर यही है पछतावा अतीतको लेकर किया जाता है और चिन्ता हमें आनेवाले समयकी सताती है। आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्यमें पछतावा वह क्रिया है जो हमारी परेशानी या दुखको जाहिर करती है। हमें यह बात समझनी चाहिए कि व्यक्ति हर स्थितिमें अपना बेस्ट देनेकी कोशिश करता है। वह हर हालातको अपनी ओरसे गंभीरतासे लेनेकी भी कोशिश करता है। हालांकि कभी-कभारा हालात ऐसे भी आते हैं जिनका अंदाजा हमें कभी भी पहले नहीं लग पाता। पछतावा करना हमारा मौलिक स्वभाव नहीं है। इसे हमने खुद ही अपने लिए गठित किया है। पछतावा। पश्चाताप करनेसे पूरी तरह भिन्न है। पश्चाताप वह भावना है जो व्यक्तिको अपने द्वारा किये गये किसी बुरे कार्यकी वजहसे महसूस होती है। अध्यात्मिक जगतमें यह माना जाता है कि जो भी होता है वह आपके भलेके लिए ही होता है। हमें केवल अपनी गलतियोंको सुधार कर आगे बढऩा चाहिए। हमें अपनी गलतियोंसे सीख लेनी चाहिए। लेकिन स्वयंको बुरा सोचना, अपने लिए गलत भावना रखना सही नहीं है। हमें पछतावेसे रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए। एक खुशहाल जीवन जीना चाहिए।