सम्पादकीय

बैंकिंग व्यवस्थामें सुधार जरूरी


अभिजीत मुखोपाध्याय

देशमें इंफ्रास्ट्रक्चर एवं विकास परियोजनाओंके लिए वित्तीय संसाधन जुटाने हेतु राष्ट्रीय बैंककी स्थापनाकी घोषणा सराहनीय पहल है। इस संबंधमें दो पहलुओंपर चर्चा जरूरी है। कोरोना महामारीके कारण संकटग्रस्त अर्थव्यवस्थामें सुधारके लिए खर्च बढ़ाना आवश्यक है और इसके लिए इंफ्रास्ट्रक्चर एक उचित माध्यम है। इस क्षेत्रमें अधिक खर्च करनेकी मांग भी व्यापक स्तरपर उठती रही है। दूसरी बात यह है कि हमारे देशमें पहलेसे ही ऐसे वित्तीय संस्थान हैं, लेकिन विभिन्न कारणोंसे बीते कुछ दशकोंमें उनकी स्थिति बिगड़ती चली गयी है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमणने विशेष राष्ट्रीय बैंककी घोषणा करते हुए कहा है कि इसकी शुरुआत बीस हजार करोड़ रुपयेके कोषसे होगी, जिसमें सरकार पांच हजार करोड़का प्रारंभिक अनुदान मुहैया करायेगी। किसी समय सीमाका निर्धारण अभी नहीं किया है, परन्तु सरकारको उम्मीद है कि अगले कुछ सालोंमें यह संस्थान शुरुआती पूंजीके आधारपर तीन लाख करोड़ रुपयेतक जुटा सकेगी। पूंजी जुटानेके लिए पेंशन फण्ड जैसी बचतोंका इस्तेमाल होगा।

साल २०१९ के आखिरी महीनोंमें केंद्र सरकारने एक नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन बनानेकी बात की थी, जिसमें २०२५ तक १११ लाख करोड़ रुपये जुटानेका प्रस्ताव था। वह भी एक महत्वपूर्ण प्रयास था, लेकिन यदि हम थोड़ा पीछे जाकर देखें तो हमारे देशमें बहुत सारी परियोजनाएं लंबित हैं। कोरोना कालमें लॉकडाउनसे मार्चसे सितंबरके बीच भी परियोजनाओंका काम ठप रहा था, जिनका मूल्य लगभग ११.५ लाख करोड़ था। इस वजहसे भी कई परियोजनाएं देरसे पूरी हो सकेंगी। परियोजनाओंमें सरकार और निजी क्षेत्रकी सहभागितापर लगातार जोर दिया जाता रहा है। यदि हम २००४ से २००८-०९ तककी वृद्धिका हिसाब करें तो उसमें इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओंका बड़ा योगदान था। लेकिन बादमें यह प्रक्रिया कई कारणोंसे ठप पड़ गयी। इसमें मुख्य वजह सरकार और निजी क्षेत्रकी भागीदारीकी व्यवस्थाका पेच था। निजी क्षेत्रकी यह चाहत होती है कि पहले सरकार पैसा लगाये और कर्जोंकी उपलब्धताको गारंटी या अन्य तरीकोंसे सुनिश्चित करे। किसी परियोजना द्वारा दी जा रही सेवाकी मांग कम होनेसे भी निजी क्षेत्र निराश होता है और अन्य परियोजनाओंपर इसका नकारात्मक असर होता है। उदाहरणके लिए यदि कोई सड़क बनती है तो निजी क्षेत्रको उम्मीद होती है कि दस साल या एक निश्चित अवधिमें वह टोल टैक्स वसूल कर अपने निवेश एवं मुनाफेको कमाकर सड़कको सरकारको सौंप देगा। परंतु यदि वाहनोंकी आवाजाही कम होती है तो यह आकलन प्रभावित हो सकता है।

लंबित परियोजनाओंके संदर्भमें यह भी उल्लेखनीय है कि एक दौर ऐसा भी आया जब तिमाही-दर-तिमाही सरकारी परियोजनाओंके रुकने या धीरे होनेका सिलसिला तेज हो गया तथा लंबित परियोजनाओंमें सरकारी परियोजनाओंकी हिस्सेदारी साठ फीसदीतक हो गयी। साल २०१९ में सरकारकी ओरसे लंबित परियोजनाओंकी समस्याके समाधानके लिए समुचित प्रक्रिया अपनायी गयी थी। उनकी समीक्षाके बाद बड़ी संख्यामें परियोजनाओंको चलाने या बेचनेकी सफल कोशिशें भी हुईं। हालांकि यह प्रयास सही दिशामें हो रहे थे, लेकिन सरकारने यह भी इंगित किया था कि लंबित परियोजनाओंको परिभाषित करनेके कोई ठोस तरीके नहीं हैं। परन्तु यह सच है कि ऐसी परियोजनाएं हैं और लॉकडाउनमें उनमें वृद्धि भी हुई है। ऐसेमें ठीक ढंगसे पूंजीकी उपलब्धता सुनिश्चित करनेके लिए ठोस कदम की दरकार थी। इंफ्रास्ट्रक्चरपर केंद्रित राष्ट्रीय बैंककी स्थापना ऐसी ही एक पहल है। अब यह देखा जाना चाहिए कि अगले कुछ वर्ष, मान लें कि २०२५ तक इस बैंकके पास तीन लाख करोड़ रुपयेकी पूंजी जमा हो जायेगी, लेकिन हमारा राष्ट्रीय इंप्रास्ट्रक्चर प्लान तो १११ लाख करोड़ रुपयेका है। यदि बैंक कुछ अधिक, यहां तक कि तीन गुनी भी राशि जुटा लेता है तब भी प्लान और इस कोषके बीच बड़ा फासला बना रहेगा। इस फासलेको कम करनेकी एक उम्मीद इस बातसे आती है कि जब सरकार अच्छा पूंजी आधार दे देगी तो बहुत सारे निजी क्षेत्रके निवेशकोंमें इसमें पूंजी लगानेके लिए भरोसा पैदा होगा। लेकिन इस आशाको बीते अनुभवोंके साथ जोड़कर देखें तो इसके पूरा होनेको लेकर निश्चित नहीं हुआ जा सकता है। यदि निजी निवेशक आते भी हैं तो वे सरकारसे गारंटी मांगेंगे और इस गारंटीके आधारपर वे बैंकसे पूंजी उठायेंगे। लेकिन क्या यह पूंजी १११ लाख करोड़ रुपयेके लक्ष्यको हासिल कर सकेगी, इस सवालको सामने रखा जाना चाहिए। फिलहाल हमें आशावान रहना चाहिए और इस प्रक्रियाके तहत यदि ५०-६० लाख करोड़ रुपये भी जुटाये जा सकेंगे तो बहुत सारी परियोजनाओंको पूरा किया जा सकेगा। यह देशकी विकास यात्रामें बेहद अहम साबित होगा।

नये सिरेसे नया बैंक बनानेकी मंशाके पीछे एक बड़ी वजह पहलेकी ऐसी संस्थाओंपर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का दबाव है। पेशेवर निदेशक बोर्डके नेतृत्वमें कुशल प्रबंधन, निगरानी और समीक्षा जैसे आयामोंका ध्यान रखते हुए नयी संस्था पहलेके खराब अनुभवोंसे सीखते हुए बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। इस दृष्टिसे भी इस पहलका स्वागत किया जाना चाहिए। परन्तु शुरुआतमें सरकारके सौ प्रतिशत स्वामित्वको कालांतरमें २६ प्रतिशत करनेके निर्णयपर भी विचार किया जाना चाहिए। ऐसा करनेसे इस राष्ट्रीय बैंकसे सरकारका नियंत्रण समाप्त हो जायेगा। तब क्या फिरसे इस बैंकके साथ भी एनपीएकी समस्या नहीं पैदा हो सकती है।

सरकार इस बैंकके तहत दस सालतक कर राहत और अन्य छूटका भी प्रावधान कर रही है। इस आकर्षणसे पूंजी जुटानेमें मदद मिलेगी। किंतु इस संबंधमें सरकारी और निजी क्षेत्रकी भागीदारीके पुराने मॉडलको ही आगे बढ़ाया जायेगा या कोई बदलाव किया जायेगा, इस संबंधमें संसदमें विधेयकके पेश होनेके बाद ही स्पष्ट रूपसे कुछ कहा जा सकेगा। यदि सरकार उस मॉडलपर ही आगे बढ़ेगी तो उसकी खामियोंपर उसे विधेयक तैयार करनेके दौरान विचार कर लेना चाहिए ताकि पुराने रोगोंसे नया बैंक बचा रहे। परियोजनाको लागू करने और पूरा करनेके संबंधमें भी अनुभवोंका संज्ञान लिया जाना चाहिए। नयी वित्त संस्थाको कम दरोंपर कर्ज देनेके लिए बैंकों और गैर-बैंकिंग संस्थाओंसे प्रतियोगिता भी करनी होगी।