सम्पादकीय

भारतका चरित्र रहा है लोकतंत्र-अवधेश कुमार


भारतमें जब भी लोकतंत्र और संसदीय प्रणालीकी चर्चा होती है, उसका स्रोत ब्रिटिश सरकारको ही जाता है। वर्तमान संसदीय प्रणाली आधारित हमारा लोकतंत्र लगभग ब्रिटिश प्रणालीपर आधारित है। जिस तरह ब्रिटेनमें कॉमन सभा और लार्ड सभाके रूपमें दो सदन है वैसे ही हमारे यहां लोकसभा एवं राज्यसभा है।
अंग्रेजोंकी पूरी कल्पना और उसका साकार रूप हमेशा भारतको उपनिवेश बनाये रखने और अपने शासनको हर हालमें सुरक्षित रखने की कुटिल नीतियोंपर केंद्रित थी। यह बात सही है कि जिन लोगोंके हाथोंमें कांग्रेसका नेतृत्व था उनमें अनेक ब्रिटेनकी शासन प्रणालीसे प्रभावित थे और उसीके अनुरूप अपने यहांके लोकतंत्रकी कल्पना करते थे। यदि जमीनी स्तरपर थोड़ा साहस करके उसे अपनाने की कोशिश होती तो भारतका राजनीतिक स्वरूप आज कुछ अलग होता। हम २६ जनवरीको गणतंत्र दिवस अवश्य मनाते हैं। इसके ऐतिहासिक कारण हैं।
भारतमें जब भी लोकतंत्र और संसदीय प्रणालीकी चर्चा होती है हमेशा उसका स्रोत ब्रिटिश सरकारको ही माना जाता है। इसमें दो राय नहीं कि वर्तमान संसदीय प्रणाली आधारित हमारा लोकतंत्र लगभग ब्रिटिश या वेस्टवेस्टमिंस्टर प्रणालीपर ही आधारित है। जिस तरह ब्रिटेनमें कॉमन सभा और लार्ड सभाके रूपमें दो सदन है वैसे ही हमारे यहां लोकसभा एवं राज्यसभा है। चुनावकी प्रणाली भी लगभग समान है। शासन प्रणालीमें ब्रिटिश राजवंशके संवैधानिक प्रधानताको अलग कर दें तो वह भी लगभग समान है। हमारे यहां भी प्रधान मंत्रीको जिस तरहके अधिकार है लगभगव ही अधिकार ब्रिटेनके प्रधान मंत्रीको है। देखा जाय तो जहां भी संसदीय लोकतंत्र है वहां मोटामोटी यही स्वरूप है। कहीं अध्यक्षीय प्रणाली है तो वहां राष्ट्रपति प्रमुख है, कहीं प्रधान मंत्री प्रमुख है। कई देशोंमें राजवंशके प्रति सम्मानके कारण अब भी उन्हें संवैधानिक प्रमुख बनाकर रखा गया है।
वास्तवमें दुनियाभरमें उपनिवेश फैलाने एवं राज करनेके कारण शासन प्रणालीपर ब्रिटिश प्रणालीका प्रभाव है। हालांकि अमेरिका अपनेको सबसे पुराना लोकतंत्र कहता है लेकिन ब्रिटेनका मानना है कि हमारे यहां तो उससे काफी पहलेसे लोकतंत्रकी व्यवस्थाएं रही है। हम यहां इस विवादमें नहीं पडऩा चाहेंगे लेकिन यदि भारतकी ओर लौटें तो यह मान लेना दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि हमारे यहां लोकतंत्र ब्रिटिश उपनिवेशवादकी देन है। लंबे समयतक कांग्रेसके सर्वमान्य नेता माने गये महात्मा गांधी स्वयं इस बातको नहीं स्वीकार करते थे कि ब्रिटेनकी संसदीय प्रणाली ऐसी है जिसकी नकलपर हमारे यहांकी लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की जाय। वह उसे वास्तविक लोकतंत्र नहीं मानते थे। उन्होंने स्वयं ग्राम स्वराज्यकी परिकल्पना की थी। यह ग्रामस्वराज और कुछ नहीं सनातन कालसे भारतमें चली आ रही विकसित और समृद्ध लोकतांत्रिक प्रणालीका ही संशोधित रूप था। उन्होंने अपने हिंद स्वराजमें ब्रिटिश प्रणालीकी आलोचना करते हुए ईश्वरसे प्रार्थना की थी कि यह प्रणाली हमारे देशमें न आये।
यह सही है कि बादके कालमें जब निश्चित हो गया कि स्वतंत्रता मिलनी निश्चित है तो कांग्रेसने संसदीय प्रणालीको ही अंगीकार करनेका निर्णय किया। कांग्रेसके आंतरिक चुनावतक उसके अनुसार होने लगे। १९०९ और १९१९ और १९३५ के कानूनोंके अनुसार संपन्न चुनावोंमें अलग-अलग पार्टियोंने भाग लिया। आम मान्यता यही है कि उसीका विस्तारित रूप आजादीके पहले अंतरिम सरकार रूपमें मिला। लॉर्ड माउंटबेटनको हमने गवर्नर जनरल बनाये रखा। कहा जाता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू मानते थे कि भारतको स्वतंत्रलोकतांत्रिक व्यवस्थाको दृढ़ करनेके लिए थोड़े समय उनके अनुभवका लाभ उठाना चाहिए। माउंटबेटनके सुझाव या मार्गनिर्देशोंका पालन करना हमारे आवश्यक है।
यहां दूसरा सवाल भी उठता है कि हमारे आस-पड़ोसमें ही आज कई स्वतंत्र देश ब्रिटिश उपनिवेश रहे हैं। वहां भारतकी तरह संसदीय लोकतंत्र इस रूपमें पल्लवित पुष्पित क्यों नहीं हुई। पाकिस्तान अफगानिस्तानका उदाहरण हमारे सामने है। पाकिस्तानसे टूटकर बना बंगलादेशमें अब जाकर संसदीय लोकतंत्रको सहजतासे स्वीकार करनेकी ओर अग्रसर हुआ है। एक समय चीनसे लेकर ताइवानतक ब्रिटेनका शासन था। आज चीन कम्युनिस्ट निरंकुशता अपना चुका है। यह तथ्य अपने आपमें कई धारणाओंपर नये सिरेसे विचार करनेकी आवश्यकता महसूस कराते हैं। यह सच है कि अंग्रेजोंके आगमनके समय भारतमें अनेक राजे-रजवाड़े, नवाब, सुल्तान आदि थे। इनमेंसे ज्यादातरमें लोकतंत्रका दिग्दर्शन आपको नहीं हो सकता। हालांकि उस सालमें भी कुछ ऐसे राजा अवश्य हुए जिन्होंने राजतंत्रकी छत्रछायामें ही थोड़ी-बहुत लोकतांत्रिकताको बनाये रखा।
इस शासन प्रणालीका कोई एक ही स्वरूप हर कालमें, हर परिस्थितिमें, हर भौगोलिक परिस्थितिमें उपयुक्त नहीं हो सकता।
लोकतंत्रका भी कोई एक ही तस्वीर सर्वकालिक, सार्वभौमिक, सार्वदेशिक नहीं हो सकता। यह दुर्भाग्य है कि विश्वपर पश्चिमी देशोंके वर्चस्व केकारणलोक तंत्रकी एक ही प्रणालीको लोकतंत्र मान लिया गया है। जिस देशमें वह प्रणाली है उसे लोकतांत्रिक कहा जायगा और जहां नहीं है उसे नहीं कहा जायगा। भारतमें वैदिककालसे ही शासनमें लोककी भागीदारी या लोकके विचारोंकी अभिव्यक्ति, लोकमानसको समझने और उसके अनुसार कार्य करनेकी प्रणालियां रहीं हैं। वैदिककालमें ऋग्वेदमें हम सभा और समितिकी चर्चा सुनते हैं। उनका चुनाव भी होता था। आप प्राचीन धर्म ग्रंथोंको देख लीजिये रामायणसे महाभारतमें भी लोकतंत्रका अस्तित्व दिखाई देता है। महात्मा बुधके आसपास भारतमें जो १६ जनपद थे उनमें कईमें तत्कालीन परिवेशके अनुसार लोकतांत्रिक प्रणाली आपको दिखाई देगी। लिच्छवी गणराज्यकी तो सर्वत्र चर्चा होती है लेकिन उसके परे भी लोकतंत्रके संकेत है। इस्लाम आक्रमणसे लेकर अंग्रेजोंके जानेतक भारतकी परपरागत रूपसे विकसित और समृद्ध होती व्यवस्थाओंको अवश्य शक्तिके बलपर मटियामेट करनेकी कोशिश हुई। काफी हदतक हुई भी। लेकिन बीज रूपमें गांवोंके स्तरपर यह व्यवस्था नष्ट नहीं हो सकी। गांव अपने नेतृत्वके लिए अलग-अलग नामोंसे प्रधान, पंच, सरपंच आदिका निर्वाचन करते रहे। आपको अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों, आख्यानोंमें, विदेशियों द्वारा लिखे गये भारत संबंधी विवरणों, कथा-कहानियोंमें पंचायतोंकी सभाओं उनमें लिए जानेवाले निर्णयों, किसी विवादपर होनेवाली पंचायतों और फैसलोंके विवरण मिलते हैं। यदि भारतमें लोकतंत्र था ही नहीं तो यह सब व्यवस्थित रूपसे कैसे संभव हो पा रहा था। इस्लामिक शासन भी जाकर निचले स्तरके लोकतांत्रिक एवं उसपर निर्भर आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक व्यवस्थाओंको ध्वस्त नहीं कर सके। हां, अपनी मजहबी व्यवहार तथा निष्ठुरतासे उनमें विभाजन पैदा किया, उनकोको कमजोर किया। अंग्रेजोंने अवश्य इन्हें खत्म करनेकी पूरी कोशिश की। कुछ हदतक उसमें सफल भी हुए। उदाहरणके लिए उन्होंने १७९४ में जमीनोंकी तीन व्यवस्थाएं कायमकर गांवोंकी आर्थिक क्षमता एवं स्वायत्तताको भी नष्ट करनेका कदम उठाया। इसका भयानक असर हुआ। जो जमींदार वर्ग पैदा हुआ उसने सदियोंसे चली आ रही पंचायतोंकी स्वतंत्र प्रणालीको जमीन संबंधी दिये गये अपने निरंकुश अधिकारोंके द्वारा देशके अनेक भागोंमें कमजोर कर दिया। उसे भ्रष्ट और पंगु बनानेमें कामयाबी हासिल की। किंतु यह गांवके लोकतांत्रिक संस्कार और चरित्रको पूरी तरह नष्ट या खत्म करनेमें सफल नहीं हुए।
कहनेका तात्पर्य है कि लोकतंत्र हमारा मूल संस्कार रहा है हमारे चरित्रमें ही लोकतांत्रिकता विद्यमान है। उसके अंश हमेशा जमीनपर सक्रिय रहे हैं। इसी कारण आजादीके बाद हमने सभी वयस्कोंको मतदानका अधिकार दिया। जिस ब्रिटेनको दुनियाके लोकतंत्रकी जननी कहा जाता है वहां महिलाओंको १९०२ में मतदानका अधिकार मिला। अंग्रेजोंने अवश्य अपने शासनकालमें मतदानके लिए अलग-अलग अर्हंताएं तय कीं। जाति, संप्रदाय, शिक्षा, उम, संपत्ति, पेशा आदि। यह बताता है कि लोकतंत्रकी उनकी अवधारणा संपूर्ण थी ही नहीं। उनकी पूरी कल्पना और उसका साकार रूप हमेशा भारतको उपनिवेश बनाये रखने और अपने अपने शासनको हर हालमें सुरक्षित रखनेकी कुटिल नीतियोंपर केंद्रित थी।
इस नाते यह मानना गलत होगा कि हमें लोकतंत्र ब्रिटेनने दिया। यह बात सही है कि जिन लोगोंके हाथों कांग्रेसका नेतृत्व था उनमें अनेक ब्रिटेनकी शासन प्रणालीसे प्रभावित थे और उसीके अनुरूप अपने यहांके लोकतंत्रकी कल्पना करते थे। उन्होंने उसे ही साकार किया। गांधीजीका ग्राम स्वराज उन्हें दूरकी कल्पना लगती थी। हालांकि जमीनी स्तरपर विद्यमान होनेके कारण यदि थोड़ा साहस करके उसे अपनानेकी कोशिश होती तो भारतका राजनीतिक स्वरूप आज कुछ अलग होता। हम २६ जनवरीको गणतंत्र दिवस अवश्य मनाते हैं। इसके ऐतिहासिक कारण हैं। लेकिन यह मान लेना कि २६ जनवरी, १९३० को ही वास्तवमें भारतमें स्वतंत्र होने और अपनी शासनप्रणाली स्थापित करनेका विचार किया सही नहीं है। इसी तरह यह भी सही नहीं कि हमारा सम्पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं एवं व्यवहार ब्रिटेनकी देन है।