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Maharashtra : फ्लोर टेस्ट से पहले तमाम तकनीकी बाधाएं, कहां उलझा है मामला


 मुंबई। महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट का हल निकलता नहीं दिख रहा है। न बागी गुट कोई कदम बढ़ा रहा है, न शिवसेना, और न ही प्रतिपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा। क्योंकि सभी को फ्लोर टेस्ट में आनेवाली बाधाओं का अंदाजा बखूबी है। माना जा रहा था कि सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिलने के बाद बागी विधायकों का गुट मंगलवार को सरकार से समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल को भेज सकता है। लेकिन अब तक तो ऐसा कोई पत्र राज्यपाल को प्राप्त नहीं हुआ है। क्योंकि बागी गुट ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता, जिससे शिवसेना को न्यायालय की शरण में जाने का मौका मिले और उनकी वापसी कुछ और दिनों के लिए टल जाए। दरअसल, ये मसला इस समय विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं व्हिप के चक्कर में उलझता जा रहा है।

राजनीतिक विशेषज्ञ पहले ही कह चुके हैं कि दो तिहाई से ज्यादा विधायक साथ होने के बावजूद एकनाथ शिंदे गुट को शिवसेना के पृथक गुट या मूल शिवसेना की मान्यता नहीं मिल सकती। इसके लिए पार्टी में भी विभाजन जरूरी है। जबकि पार्टी संगठन अभी भी शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के साथ है। संगठन और विधान मंडल दल दोनों में विभाजन के बाद शिंदे गुट को पहले चुनाव आयोग से अपने गुट को मान्यता दिलानी होगी। तब वह विधानसभा अध्यक्ष या राज्यपाल के पास जा सकेंगे।

विधानसभा अध्यक्ष का मसला भी उलझा हुआ है। महाराष्ट्र विधानसभा में यह पद नाना पटोले के यह पद छोड़ने के बाद चार फरवरी, 2021 से खाली है। पिछले शीतकालीन सत्र में महाविकास आघाड़ी सरकार ने विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया बदलने की शुरुआत की थी। पहले यह चुनाव गुप्त मतदान से होता था। मविआ सरकार ने इसे ध्वनि मत से कराने के लिए नियम में बदलाव करना चाहा। इस पर राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी की तरफ से आपत्ति आ चुकी है और भाजपा के विधायक गिरीश महाजन इस मसले को सर्वोच्च न्यायालय में भी ले जा चुके हैं। इसके लिए उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में 10 लाख रुपए भरने भी पड़े हैं।

राजनीतिक विश्लेषक रविकिरण देशमुख का मानना है कि यदि भाजपा या कोई और दल विधानसभा में नए विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव की मांग करता है, तो शिवसेना तुरंत उसे सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामले की याद दिलाएगी। ऐसी स्थिति में विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव या तो सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद होगा, या भाजपा विधायक गिरीश महाजन तो अपनी याचिका वापस लेने पर बाध्य होना पड़ेगा। यदि वह याचिका वापस लेने की अर्जी डालते हैं, तो जरूरी नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय तुरंत ही, या बिना किसी सख्त टिप्पणी के अर्जी वापसी की अनुमति दे देगा। यानी इस प्रक्रिया में भी समय लगेगा।

दूसरी ओर सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले में कहीं भी विधानसभा उपाध्यक्ष नरहरि झिरवल या शिवसेना द्वारा नियुक्त मुख्य प्रत्योद सुनील प्रभु को उनका काम करने से रोकने का आदेश नहीं दिया गया है। और यदि ये दोनों अपना काम करते रहे, तो विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुलाए जाने की स्थिति में शिवसेना का मुख्य प्रत्योद (व्हिप) ही व्हिप जारी करेगा। यदि उसका पालन गुवाहाटी में बैठे विधायकों ने नहीं किया तो उनकी सदस्यता जाने का खतरा उन्हें उठाना पड़ेगा।

इसलिए सदन में सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के पास यह विकल्प भी नहीं है कि वह शिंदे गुट के विधायकों के गुवाहाटी में रहते-रहते ही मुंबई में अपना बहुमत सिद्ध करवा सके, या विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव करवा सके। इस संबंध में राज्यपाल की भूमिका भी सीमित है। वह सरकार या मंत्रिमंडल को विशेष अधिवेशन बुलाने की सिफारिश तो कर सकते हैं। लेकिन विधानसभा के अंदर की कार्यवाही में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते। संभवतः यही कारण हैं कि शिंदे गुट अभी भी गुवाहाटी से मुंबई का रुख नहीं कर पा रहा है।