सम्पादकीय

दीन जानि तेहि अभय करीजे


सुखी भारती
भगवान श्रीरामजी स्नेह देखकर हनुमानजीके हृदयमें हर्ष एवं उल्लासकी लहर दौड़ पड़ी। हनुमानजीको भी लग रहा था मानो श्रीराम जीने उन्हें गोदमें उठा लिया हो। हनुमानजीने भी देखा कि आज प्रभु भी एक पिता समान मेरे अनुकूल हैं-
देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयं हरष बीती सब सूला॥
प्रभु अनुकूल हों तो हृदयकी पीड़ा भला कैसे रह सकती थी। हनुमान अपने बीते कालके समस्त कष्टोंको बिसर गये और अब श्रीरामसे कुछ मांगनेकी बारी थी। वैसे तो समस्त संसार ही कुछ न कुछ मांगता ही है। मांगनेके साथ ही एक व्यापारिक व्यवहार भी करता है। हमने भगवानको कितना नादान समझ लिया है। इसीलिए हम सब मनसे दरिद्र हैं। प्रभुको रुपयेसे या भाव लगाकर नहीं खरीदा जा सकता। लेकिन यदि हृदय भक्तिमय भावोंसे भरा है तो बिकनेके लिए मानो सदा ही तैयार बैठे हैं। क्योंकि प्रभु और उसके भक्तमें भाव ही केन्द्र बिंदु हुआ करता है-
भावके भूखे प्रभु हैं, भाव ही इक सार है।
भावसे उसको भजे जो, भवसे बेड़ा पार है॥
जब हम ‘भाव शून्य’ होते हैं तो हमारी झोलीमें भी केवल ‘शून्यता’ ही आती है। अतएव हम प्रभुके समक्ष जाकर भी खाली हाथ रह जाते हैं। विडंबना यह भी है कि हमारा मांगना भी तो मात्र केवल अपने स्वार्थतक ही जुड़ा होता है। कहीं कोई परमार्थकी रत्तीभर भी भावना नहीं होती। तो प्रभु भला हमपर कैसे प्रसन्न होंगे। हमारी प्रार्थना भी तो भयंकर कपट पूर्ण होती है। जैसे एक तथाकथित भक्त भगवानके समक्ष हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु! आप समस्त संसारके खजाने भर दो। सब झोलियोंमें खजाने उड़ेल दो। यह देख प्रभुको बड़ी प्रसन्नता हुई कि वाह! कितना अच्छा भक्त है। स्वयंके लिए कुछ मांग ही नहीं रहा। लेकिन अगली पंक्ति सुनते ही प्रभुका भ्रम टूट गया क्योंकि वह दिखावटी भक्त बोला-‘प्रभु! आप सबको सब कुछ देना, लेकिन एक बातका विशेष ध्यान रखना कि जब सब खजाने बांटेगे तो शुरुआत मेरेसे ही करना। वरना कुछ करना ही मत।‘ भगवान भी यह देखकर जीवके दुर्भाग्यको चाहकर भी बदल नहीं पाते हैं। लेकिन यहां हनुमानजी भी मांग रहे हैं। स्वार्थके लिए नहीं अपितु परमार्थके लिए, दूसरोंके लिए-
नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥ तेहि सम नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥
अर्थात हे प्रभु! वहां ऊपर पहाड़ीपर हम वानरोंके राजा सुग्रीव रहते हैं। वह आपके दास हैं। आपसे विनती है कि आप जाकर उनसे मित्रता कीजिए। उन्हें दीन समझकर समस्त ओरसे अभय कर दीजिए। देखियं यहां हनुमानजी स्वयंके लिए कुछ भी न मांगकर केवल सुग्रीवके लिए ही मांगते हैं और सुग्रीवके लिए राजा शब्द संबोधन करते हुए तुरंत कह देते हैं कि प्रभु! वे केवल हम वानरों एवं वनवासियोंके राजा हैं। लेकिन आपके तो दास ही हैं। मानो हनुमानजी सुग्रीवका व्यक्तित्व प्रभुके सम्मुख रखना चाह रहे थे कि भले ही वह राजा हैं लेकिन राजाओंवाला अहंकार उनमें कहीं किंचित मात्रा भी नहीं और साथ ही वह आपके परम भक्त भी हैं।
वाह! हनुमानजी परमार्थकी कितनी पावन भावनाका पालन कर रहे हैं। उनका प्रयास केवल एक ही है कि कोई जीव बस कैसे भी करके प्रभुसे मिल पाये। फिर भले ही इसमें कुछ थोड़ा बहुत झूठ भी हो तो भी कोई बात नहीं। झूठकी बात हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वास्तवमें सुग्रीव वर्तमान कालमें राजा नहीं अपितु ‘निष्काषित राजा’ हैं। इसका कारण है कि किष्किन्धके राज्यपर तो अभी बालिका कब्जा था और उसने सुग्रीवकी पत्नीपर भी जबरन अपना अधिकार जमा लिया था। हकीकतमें सुग्रीवका श्रीरामके प्रति कोई दासवाला भाव भी नहीं था। क्योंकि वह तो श्रीराम जीको बालि द्वारा भेजे गये कोई शत्रु प्रतीत हो रहे थे। लेकिन तब भी हनुमान जीने सुग्रीवके दास होनेकी घोषणा कर दी थी। परंतु शीघ्र ही हनुमान जीको शायद इस गलतीका अनुभव हुआ और सोचा कि स्वामी तो दासकी गलतीपर क्रोधित हो दण्ड भी दे सकते हैं और सुग्रीवने कोई गलती कर दी तो नाहक ही लेनेके देने पड़ जायंगे। क्यों न मैं सुग्रीवके संबंधमें लौकिक व्यवहारका तरीका ही बदल हूं। क्योंकि मैं सुग्रीवको दासके साथ-साथ ‘कपिपति’ अर्थात् वानरोंका राजा भी कह चुका हूं। क्योंकि श्रीराम-सुग्रीव दो राजाओंके मध्य मित्रताका संबंध भी तो न्यायसंगत ही है।
सुग्रीवको श्रीराम मित्रके रूपमें ले लेंगे तो मित्र भावकी तो रीति ही यह है कि इसमें तो बड़ीसे बड़ी गलती भी दण्डकी परिधिमें नहीं आती और न ही व्यवहारमें स्वामी-दासकी तरह कोई नीति पूर्वक, पारंपरिक मर्यादाका निर्वाह करनेकी आवश्यक्ता होती है। आसन आमने-सामने या बराबर भी लग सकते हैं। इसलिए हनुमंत सुग्रीव जैसे पात्रको भी प्रभुके समानान्तर मित्रवत् भावमें लानेको सज हो उठते हैं और साथ में कह भी देते हैं-‘दीन जानि तेहिं अभय करीजे’ अर्थात वे बड़े ही डरे-सहमे हुए हैं कि कहीं बालि उनका वध ही न कर दे। तो कृपया आप उन्हें अभयदान अवश्य दीजियेगा। हनुमंतजी जीवको प्रभुसे जोडऩेकी भावना एवं उसके आध्यात्मिक, शारीरिक एवं मानसिक कष्ट निवृत करनेके लिए और क्या-क्या करते हैं।