सम्पादकीय

बड़ी सफलताका दावा


आवश्यकता आविष्कारकी जननी है। यह बहुत पुरानी कहावत है लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। कोरोना संकट कालमें इस वायरसको परास्त करनेके लिए पूरी दुनियाके सक्षम देशोंने नये-नये आविष्कारोंके लिए मजबूत कदम आगे बढ़ाया जिसके अनेक सार्थक परिणाम सामने आये हैं। चाहे वह टीका हो या दवाएं, इनका उपयोग कोरोनाके खिलाफ जंगमें हथियारके रूपमें इस्तेमाल किया जा रहा है। कोरोनारोधी टीकों और दवाओंके अच्छे परिणाम सामने आये हैं और यह मानव जीवनकी रक्षाके लिए सक्षम कवचके रूपमें इस्तेमाल किये जा रहे हैं। भारतने भी टीके विकसित किये जिसकी मांग पूरी दुनियामें हो रही है। उसी क्रममें रक्षा अनुसन्धान और विकास संघटन (डीआरडीओ) कोविड-१९ रोधी स्वदेशी दवा २-डीजी विकसित की है। पाउडरके रूपमें इस दवाको सोमवारको बाजारमें उपलब्ध करा दिया गया। यह दवा मध्यम और गम्भीर कोरोना रोगियोंके इलाजमें सहायक दवाके रूपमें कार्य करती है। यह आक्सीजनकी जरूरतको भी कम करती है। इससे रोगियोंकी रिकवरी शीघ्रतासे होनेका दावा किया गया है। कोरोनाके खिलाफ जंगमें एक बड़ी सफलताका दावा आस्ट्रेलियाके अन्तरराष्टï्रीय वैज्ञानिकोंकी टीमने किया है जिससे कोरोनाको परास्त करनेकी उम्मीद और बढ़ गयी है। आस्ट्रेलियाके मेंजीस हेल्थ इंस्टीट्यूट क्वींसलैण्डके वैज्ञानिकोंकी यह टीम पिछले वर्ष अप्रैलसे ही शोध कर रही थी और इन लोगोंने एक ऐसी थैरेपी विकसित की है जो कोरोना वायरसके पार्टिकल्सको फेफड़ेमें ही खोज कर उसे वहीं नष्टï कर देती है। यह तकनीक एक मिसाइलकी तरह कार्य करती है जो पहले अपने लक्ष्यको खोजती है और ९९.९ प्रतिशत उसे नष्टï कर देती है। इससे मरीजोंकी मृत्यु दरमें कमी आनेकी सम्भावना व्यक्त की गयी है। शोधमें शामिल प्रोफेसर निगेल मैकमिलनका कहना है कि यह अभूतपूर्व ट्रीटमेण्ट वायरसको प्रतिकृत बनानेसे रोकता है। यह थैरेपी जीन-साइलेंसिंग चिकित्सा तकनीकपर आधारित है। इसे पहली बार १९९० के दशकमें आस्ट्रेलियामें खोजा गया था। श्वसन रोगपर हमला करनेके लिए जीन-साइलेंसिंगका उपयोग किया जाता है। यह दवा इंजेक्शनके माध्यमसे रक्त प्रवाहमें पहुंचाया जाता है जो फेफड़ोंमें जाते ही कोशिकाओंमें मिल जाती हैं। इस बड़ी सफलता और उसके दावोंके सम्बन्धमें विश्व स्वास्थ्य संघटनको पड़ताल करनेकी जरूरत है और यदि यह कसौटीपर खरा उतरता है तो इसे पूरी दुनियामें फैलानेकी जरूरत है।

परीक्षाकी परीक्षा

कोरोनाकी दूसरी खतरनाक लहरके बीच बोर्डकी परीक्षाएं कराने अथवा निरस्त करनेकी स्थितिसे बाहर निकलना परीक्षाकी परीक्षा है। एक ओर जहां सीबीएसई सहित राज्योंकी बोर्ड परीक्षाओंको रद करनेकी मांग जोर पकड़ रही है, वहीं दूसरी ओर अधिकतर राज्योंने इन परीक्षाओंको अहम बताते हुए इन्हें करानेका सुझाव दिया है जो उचित और सारगर्भित है। बड़ा प्रश्न यह है कि परीक्षा क्यों करायी जाती है, जिसका एक ही उत्तर है परीक्षार्थीकी प्रतिभाका मूल्यांकन और शिक्षाकी सुचिताको जीवन्त रखना। ऐसी स्थितिमें कोरोना कालके संकटके दौरमें यदि बिना परीक्षाके परीक्षार्थीको कक्षोन्नति दे दी जाती है तो शिक्षाका उद्देश्य ही खत्म हो जाता है। परीक्षाके दो प्रमुख कारक हैं, एक परीक्षार्थी और दूसरा संचालन तंत्र। परीक्षा यदि निरस्त होती है और परीक्षार्थीको अगली कक्षामें प्रवेशका अधिकार दिया जाता है तो यह संचालन तंत्रकी विफलता है। यदि परीक्षाएं रद ही करनी थी तो आनलाइन शिक्षाकी आवश्यकता ही क्या थी जो छात्रों और अभिभावकोंके लिए दिक्कतोंका सबब बना हुआ है। हालांकि शिक्षा मंत्रालयने राज्योंको फिलहाल ५२२८ करोड़की राशि जारी की है जो आनलाइन शिक्षा, प्रशिक्षण एवं अन्य गतिविधियोंपर खर्च किया जा सकता है लेकिन इससे प्रतिभाका आकलन सन्देहास्पद है। समस्याओंसे भागना समस्याका समाधान नहीं हो सकता। समस्याओंसे निबटनेके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। परीक्षाके समर्थनमें ओडिशा सबसे पहले आगे आया। बादमें दूसरे राज्योंने उसका समर्थन किया। उच्च शिक्षण संस्थाओंमें अन्तिम वर्षकी परीक्षा करानेकी अनिवार्यता सही निर्णय है। बोर्डकी परीक्षाओंमें भी इसे लागू किया जाना चाहिए। यदि राज्य परीक्षा नहीं कराते तो यह परीक्षा तंत्रकी विफलता और कोरोनाके असरकी जीत होगी। परीक्षा संचालन तंत्रको छात्रोंके व्यापक हितमें परीक्षाओंको सुचारु रूपसे सम्पन्न करानेके विकल्पपर विचार करनेकी जरूरत है।