सम्पादकीय

भ्रष्टाचार नियंत्रणमें जनताका सहयोग


डा. भरत झुनझुनवाला

जीएसटी लागू करते समय सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि इससे टैक्सकी चोरी कम हो जायगी। इसके बाद ई-वे बिल लागू करते समय पुन: विश्वास दिलाया गया था कि सड़कपर चलनेवाले वाहनोंकी जांच हो सकेगी और नम्बर दो यानी बिना टैक्स चुकाये माल सड़कपर नहीं आ सकेगा। लेकिन आलम यह है कि टैक्सकी चोरी बढ़ती ही जा रही है। हालमें मुझे एक ब्रैंडेड पंखा खरीदना था जो किसी बड़ी कम्पनी द्वारा बनाया गया था। वह भी मुझे आसानीसे बिना जीएसटी अदा किये उपलब्ध हो गया या तो यह बड़ी कम्पनी नम्बर दोमें माल सप्लाई कर रही है अथवा उसके बिलको घुमाया जा रहा है अथवा जिस कम्पनीको या तो यह कम्पनी नम्बर दोमें माल सप्लाई कर रही है अथवा उसके बिलको घुमाया जा रहा है। बिल उस कम्पनीके नाम कटा जा रहा है जिसे जीएसटीका रिफंड मिल रहा हो और माल नंबर दोमें बिना जीएसटीके बाजारमें बेचा जा रहा है। अलावा वर्तमानमें एक ही ई-वे बिलपर कई बार मालकी ढुलाई की जा रही है। जैसे दिल्लीसे गाजियाबादके बीचका ई-वे बिल २४ घंटेतक मान्य होता है जिसमें उसी ई-वे बिलपर तीन बार मालका आवागमन हो जाता है। जीएसटीकी चोरीको हवाई चप्पलका दाम दो सौ रुपया होता है लेकिन इसका बिल ५० रुपया बनाया जाता है। इस प्रकार तमाम उपाय हैं जिनसे जीएसटी व्यवस्थाको चकमा दिया जा रहा है। नम्बर दोकी समानांतर अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह चालू है जैसे जीएसटीके पहले चालू थी।

अब सरकारने योजना बनायी है कि जितनी गाडिय़ां सड़कपर बिना ई-वे बिलके चलेंगी उनकी भी डीटेल सरकारको इण्टरनेटसे उपलब्ध हो जायेगी और टोल प्लाजा इत्यादिपर इन्हें रोककर इनकी जांच की जा सकेगी। स्पष्ट  है कि तकनीककी एक सीमा है और यह तभी कारगर होगी जब मूल जीएसटी प्रशासनकी नीयत ईमानदारीकी हो अन्यथा भ्रष्ट अधिकारी और उद्यमी जा गठजोड़ सभी तकनीकके बावजूद किसी न किसी प्रकार अपना स्वार्थ हासिल कर ही लेगा। सरकारने इस परिस्थितिको भांपते हुए किन्ही भ्रष्ट अधिकारियोंको सेवामुक्त किया है। लेकिन यह काम ऊपरी प्रशासनकी सजगतासे हुआ है। जीएसटीके शीर्ष अधिकारियोंको सूचना मिली कि अमुक अधिकारी भ्रष्टाचारमें लिप्त है। उन्होंने उसपर एक्शन लिया और उस अधिकारीको सेवामुक्त कर दिया। इसमें संकट यह है कि यदि किसी ईमानदार अधिकारीकी शिकायत भ्रष्ट अधिकारीके रूपमें कर दी जाय तो ऊपरके अधिकारी अनायास ही ईमानदार अधिकारीको भी सेवामुक्त कर सकते हैं। देखा गया है कि सरकारी दफ्तरोंमें यदि कोई ईमानदार अधिकारी होता है तो उसके सहकर्मी घूस नहीं ले पाते हैं और अपने स्वार्थको सिद्ध करनेके लिए ईमानदार अधिकारी फंसानेका प्रयास करते हैं अथवा उसकी रिपोर्ट उच्च अधिकारीसे कर देते हैं। फलस्वरूप ईमानदार अधिकारी स्वयं संकटमें आ जाते हैं। सरकारमें सफलतापूर्वक काम करनेका उपाय यह है कि आप स्वयं अन्य भ्रष्ट अधिकारियों भ्रष्ट हो जायं तभी आपकी नौकरी सुरक्षित रहती है।

विचार करना है कि अमेरिकामें भ्रष्टाचार तुलनामें कम क्यों है। यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंडके प्रोफेसर जॉन जोसफ वालिसके अनुसार मूल कारण यह है कि उनके संविधान निर्माताओंको प्रमुख चिंता यह थी कि सरकार जनतापर भारी न हो जाय। वह चाहते थे कि प्रत्येक नागरिकको प्रतिनिधित्व और समानताका अधिकार उपलब्ध हो। इसलिए सम्पूर्ण तंत्रमें आम आदमीकी भूमिकाको प्रमुखता दी गयी है। अमेरिकी प्रजातंत्रमें विचार यह है कि सरकारपर जनता भारी हो, न कि जनतापर सरकार। लेकिन जैसा ऊपर बताया गया है सरकार जीएसटीको ऊपरसे ठीक करना चाहती है। हम ऊपरके अधिकारियोंकी जानकारीसे प्रशासनको चलाना चाहते हैं, न कि जनताकी भागीदारीसे।

इंडियन इंस्टिट्यूट आफ मैनेजमेंट अहमदाबादके प्रोफेसर एरोल डिसूजाका कहना है कि भ्रष्टाचारके नियन्त्रणमें प्रेस और सिवल सोसायटीकी अहम् भूमिका है। जैसे देखा जाता है कि पुलिसकी ज्यादतीसे जनताको राहत दिलानेके पीछे पीपुल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज जैसे संघटनों अथवा सरकारोंकी ज्यादतीसे जनताको रहत दिलानेके पीछे एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संघटनोंकी प्रमुख भूमिका है। यदि यह संघटन प्रभावी होते हैं तो नीचेसे भ्रष्ट अधिकारियोंपर दबाव बनता है। नीचेसे सिविल सोसायटी और ऊपरसे ईमानदार प्रशासनके सहयोगसे बीचकी नौकरशाहीको कुछ सीमातक रोका जा सकता है जैसे चिमटेसे गरम रोटीको पकड़ा जाता है।

इस दिशामें सरकार नीचेसे जनताको ताकत नहीं दे रही है। केवल ऊपरसे अधिकारीयोंको ठीक करना चाहती है। जैसे पांचवे वेतन आयोगमें संस्तुति दी गयी थी कि क्लास-ए अधिकारियोंकी हर पांच वर्षपर आडिट करायी जाय। इस संस्तुतिको सरकारने दरकिनार कर दिया है। बाहरी आडिटका अर्थ हुआ कि सरकारके भ्रष्ट ढांचेसे बाहरके लोग किसी अधिकारीकी कार्यकुशलताकी जांच कर। इस प्रकारकी जांच स्वतंत्र मूल्यांकनको बनाती है। ऐसी स्वतंत्र जांचपर ऊपरके अधिकारी एक्शन लें तो भ्रष्ट अधिकारियोंपर शिकंजा खींचा जा सकता है। मूल बात यह है कि ऊपरसे ईमानदार सरकार और नीचेसे सिविल सोसायटी अथवा जनता एवं प्रेसके संयोग मात्रसे बीचके भ्रष्ट नौकरशाहीपर नियन्त्रण किया जा सकता है। हालमें उत्तर प्रदेशके एक शीर्ष मंत्रीने अवगत कराया कि सरकार द्वारा तमाम भ्रष्ट पुलिस अधिकारियोंको बर्खास्त किया जा चुका है लेकिन पुलिस मानती ही नहीं और सरकर विवश है।

समस्या यह है कि यदि सरकार पीपुल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टी और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संघटनोंको मान्यता देती है तो इन संघटनों द्वारा भ्रष्ट नौकरशाहीके साथ भ्रष्ट सरकारपर भी प्रश्न उठाये जाते हैं जो कि सरकारको मान्य नहीं होता है। प्रतीत होता है कि इसलिए सरकारका प्रयास है कि सिविल सोसायटीको समाप्त कर दे जिससे उसके ऊपर स्वयं प्रश्न न उठे। परिणाम यह है कि सरकारके ऊपर प्रश्न न उठनेके साथ-साथ भ्रष्ट अधिकारियोंके ऊपर भी प्रश्न नहीं उठ रहा है और ऊपरसे इमानदार सरकारके सारे प्रयास निष्फल हैं। इसलिए सरकारको ऊपर मात्रसे भ्रष्टाचारको नियंत्रित करनेके स्थानपर प्रेस और सिविल सोसायटीको सबल बनाना होगा तभी भ्रष्टाचारपर नियन्त्रण पाया जा सकेगा। केवल तकनीकके माध्यमसे जीएसटी अथवा किसी भी अन्य व्यवस्थामें भ्रष्टाचारका नियन्त्रण संभव नहीं है।