सम्पादकीय

वैश्विक महामारीके दंशसे निजात कब


डा. अम्बुज 

कोरोनाका हाहाकार पुन: तेजीसे मचा हुआ है जबकि दो वैक्सीन देशके वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित है जिसे भारत वर्षके औषध महानियंत्रकसे स्वीकृति प्राप्त है। शासनतंत्रने भी वैक्सीनको कोरोनापर अन्तिम प्रहार कहा लेकिन वैक्सीनके उपरान्त भी लोग कोरोना संक्रमित होते जा रहे हैं। एक ओर जहां शासनतंत्र पीपीई किट, मास्क चिकित्सकीय उपकरण दवाइया और वैक्सीन निर्यात कर रही है। वहीं देशमें आक्सीजन दवाकी अनुपलब्धतासे हालात बदसे बदतर होते नजर आ रहे हैं। देशवासी आधुनिक भारतमें पहली बार बिना दवा-आक्सीजनके मरनेके लिए बाध्य हो रहे हैं यह सोचनेका विषय है। कोरोनाका यह हाहाकार एकाएक नहीं हुआ। यह धीरे-धीरे जोर पकड़ा है। इस वर्ष फरवरीमें ही कोरोनाके दूसरे फेजकी दस्तक सुनायी पडऩे लगी थी तब देशकी संसद भी चल रही थी। शासनने भी इसे सामान्य ढंगसे ही लिया। देशकी संसदमें स्वास्थ्यमंत्रीने कहा हर किसीको नहीं लगेगा कोरोनाका टीका। उस वक्ततक टीकाकरण देशके आमजनके लिए टीकाके अनुसार हो रहा था कि प्रथम वरिष्ठï नागरिक फिर ४५ वर्षसे ऊपर अभी शासनने मईसे १८ वर्षसे ऊपर युवाओंको टीका लगानेका टीकामंत्र दिया। कोरोना टीकाकरण मंत्र ऐसे क्यों देशको दिया गया समझसे परे है कि जबकि  टीकाकी कोई कमी नहीं थी क्योंकि देश लाखों फाइल वैक्सीन दुनियाके अन्य देशोंमें निर्यात कर रहा है। जब मार्चके आरम्भसे कोरोनाका दूसरा फेज जोर पकडऩे लगा तब भी शासन-तंत्रने कोई तेजी नहीं दिखायी, बस संसद सत्रको समयसे पूर्व बन्द कर दिया गया। अन्य देशके सभी कार्यक्रम यथावत चलते रहे, कहीं भी कोविड अस्पताल, आक्सीजनकी तो बात ही नहीं थी। बात थी तो बस विकास, नये संरचनाओंके निर्माणकी उसीमें सर्वोच्च न्यायालयनके रोकके बावजूद आनन-फाननमें नये संसद भवन निर्माणकी नींव रखी गयी जिसकी इस कोरोना कालमें कितनी आवश्यकता है, यह विचारणीय विषय है। जबकि वर्तमान संसद भवन द्वारा कार्य सुचारू रूपसे चल रहा है और उक्त भवन भी मजबूत है।

जब कोरोनाकी लहर रफ्तार पकडऩे लगी अप्रैल आते-आते हालात बेकाबू हो गये। कोरोना अपना असर दिखाने लगा। अस्पतालोंसे लेकर श्मशानों, कब्रिस्तानोंतक दूरतक लम्बी लाइन लग गयी। अस्पतालोंमें जगह, वेण्टिलेटर, आक्सीजन, दवाई, कुछ भी उपलब्ध नहीं, आम देशवासीको लोग बिना दवा इलाजके आधुनिक भारतवर्षमें तड़पकर मरने लगे। श्मशान-कब्रिस्तानपर शवोंका तांता लग गया। गुजरातके सूरत शहरकी खबर है कि वहांके एक विद्युत शवदाह गृहमें इतने शव जले कि उसकी चिमनी पिघल गयी, लोहेका प्लेट फार्म पिघल गया। देशमें आवश्यक दवाओं-आक्सीजनकी कमी और कालाबाजारी सुनायी पडऩे लगी। शासनतंत्र विकास और चुनावमें लगा रहा। जब कई राज्य बाध्य होकर लाकडाउन कफ्र्यूका रास्ता अपनाने लगे तब शासन-तंत्रने तेजी दिखायी और कोविड अस्पताल खोलनेकी बात होने लगी लेकिन यह सोचनेका विषय है कि यह सब एक दिनमें नहीं हो सकता। अब आक्सीजन संयंत्र लगानेकी बात हो रही है। कब उत्पादन करेगा, यह समयके गर्भमें है। तबतक यह कोरोनाका लहर कितना कहर ढा चुका होगा। कितने परिवार उजड़ चुके होंगे। इसका हिसाब ही नहीं हो सकता। सत्ताको चुनाव और उसमें विजय चाहिए तभी तो वह शासनके माध्यमसे जनताकी सेवा और देशका विकास कर सकता है। शायद इसलिए वर्तमानमें लोकतंत्रमें हुक्मरानोंके लिए जनता प्रमुख नहीं होती सत्ता और चुनाव प्रमुख होता है। इस दूसरे फेजमें भी शासनने चुनाव एवं सत्ताको प्रथम वरीयता दी जिससे लोकतंत्रकी रक्षा हो सके। यह अलग सवाल है कि कोरोनाके कहरसे देशवासी बिना इलाजके मर रहे हैं। शासन तंत्रके सिर्फ बात करनेसे एक दवा कम्पनीने ३५ फीसदीसे ऊपर दवाका दाम कम कर दिया जबकि शासन द्वारा टैक्समें कोई छूट नहीं दी गयी। सोचनेवाली बात है कि क्या वह दवा कम्पनी ३५ फीसदीसे ऊपर मूल्य अधिक लेकर मुनाफा कमाती थी या फिर अपनी दवाओंके स्तरमें कोई कमी कर रही है। पर्देके पीछेका सच क्या है जरूर आनेवाले दिनोंमें आयेगा।

आक्सीजन आपूर्तिके लिए आक्सीजन एक्सप्रेसके साथ सेनाको भी उतारना पड़ा। देशका सैन्य अस्पतालोंको भी आक्सीजन अनुपलब्धतासे जूझना पड़ रहा है। कोरोना वैश्विक महामारीके कहरसे सांस टूट रही है, आस छूट रही है। इसका मतलब है कि विगत एक वर्षसे कुप्रबन्धनका मंत्र शासन-तंत्रमें चलता रहा। सेनाके सबसे प्रमुख कड़ी ब्रिगेडियर होता है। आक्सीजनकी कमीके कारण देशके सेनाके पूर्व ब्रिगेडियरकी असामायिक मौत हो गयी। कुप्रबन्धनसे देशने न जाने कितने प्रतिभाओंको खो दिया। दिल्लीसे लेकर पूरे देशका हाल एक है। अब शासन-तंत्रने कुम्भ स्नानको प्रतीकात्मक रखनेकी अपील की है। साथ ही एक महामण्डलेश्वरने भी कुम्भमें भारी संख्यामें न आनेकी बात कही यह तो कुम्भके आरम्भमें सोचना था जब नारा दे रहे थे कि कुम्भ नहाओ, पुण्य कमाओ। लोग कह रहे थे कि कुम्भमें गंगास्नानसे कोरोना नहीं बढ़ता है। इस तरहके शासन-तंत्र द्वारा मंत्र आते रहे लोग बिना इलाज दवाके मरते रहे।

देशके मशहूर डाक्टरोंक एक बयान आया जिसमें उन्होंने जो बातें कही उसमें हिचकिचाहट साफ नजर आयी। स्पष्टï कुछ भी नहीं था केवल बेसिर-पैरकी बातें थी यह चिन्ताका विषय है। देशके सबसे बड़े अस्पताल एम्सके डायरेक्टरने जीवनरक्षक दवा रेमडेसिविरके लिए कहा कि यह कोई जादुई दवा नहीं है। इसी दवाके लिए मेदांताके चेयरमैनने कहा कि यह कोई रामबाण नहीं है। इस तरहकी बचकाना बात कमसे कम नामी डाक्टरोंको नहीं करना चाहिए क्योंकि सभी जानते हैं जीवनरक्षक दवा, आक्सीजन एवं इलाज सभी प्राकृतिक भौतिक है। यह जादुई नहीं है। सभी जानते हैं दवा अमृत नहीं, डाक्टर भगवान नहीं होता फिर भी लोग इजाद एवं आवश्यक इलाज करते हैं। डाक्टरोंकी राय लेते हैं मानते हैं इन सबको खारिज करना कहांतक उचित है। सोचनेवाली बात है कोरोनासे संक्रमित ८५ फीसदी लोग बिना किसी विशेष इलाजके ठीक हो रहे हैं यानी वैश्विक महामारी कोरोना बहुत घातक बीमारी नहीं है तब बात उठती है कि इतना मौत किस बीमारीसे हो रही है। क्या कारक है, क्यों भयावह माहौल है, शासन क्यों कोरोना वैश्विक महामारीका हवाला दे रहा है, कफ्र्यू और लाकडाउन कोरोना वैश्विक महामारीके तहत लगा रहा है।

शासन-तंत्रका यह कहना कि यदि हम एक राष्टï्रके रूपमें काम करेंगे तो संसाधनोंका कोई अभाव नहीं होगा। ऐसा कहना किस बातका द्योतक है कोरोनाके दूसरे लहरमें कोरोना जंगके बीच एक राष्टï्रकी बात आखिर शासन क्या दर्शाना चाहता है आखिर दवाओं आक्सीजनपर जमाखोरी कालाबाजारी अधिक मुनाफा कैसे होने लगा। क्या कम्पनियां अपने उत्पादका मूल्य स्वयं निर्धारित कर सकती हैं या देशमें मूल्य निर्धारणके लिए कोई कारगर प्रणाली तंत्र काम कर रहा है। यदि है तो कोई कम्पनी स्वेच्छासे कैसे अपने उत्पादका मूल्य घटा-बढ़ा सकती है।

चुनाव आयोगने किस चुनावी मंत्रके तहत कोरोना कालमें बंगालमें आठ चरणकी लम्बी चुनावी प्रक्रियाका कार्यक्रम बनाया जिससे बंगालका समस्त कामकाज चुनावमें व्यस्त हो गया। अभी चुनावके दौरान ही बंगालमें ट्रिपल म्यूटेट फैलनेकी खबर आने लगी है जबकि अन्य राज्योंमें दो-तीन चरणमें चुनावी प्रक्रिया पूरी हो गयी। कोरोना वैश्विक महामारीके दौरमें बंगालमें लम्बी चुनावी प्रक्रिया चुनाव आयोगकी सोचपर सवालिया निशान खड़ा करता है। सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडियाने कोविशील्ड वैक्सीनका पुन: मूल्य निर्धारण करना ही कई सवाल खड़ा करने लगा। क्या कम्पनी किसी उत्पादका मूल्य निर्धारणके लिए स्वतंत्र है। जबकि कोविशील्डको देशका उत्पाद बताकर पूरी दुनियामें प्रचार किया गया तब कम्पनीका मूल्य कुछ था अब कुछ होने लगा। आखिर तय करना होगा कि कोविशील्ड देशका टीका है या कम्पनीका। देशके शासन-तंत्रको आवश्यक दवाओं एवं टीकेके दामकी जांच राष्टï्रीय औषधि मूल्य प्राधिकरणके तहत सतर्क होकर करते रहना पड़ेगा, नहीं तो मुनाफेके लिए कम्पनियां देशवासियोंको लूटनेका कार्य करती रहेंगी। उद्योगपति और कम्पनियां मुनाफा कमानेके लिए एक होकर बाजार उत्पन्न करने और आर्थिक उपनिवेशवादके विकासमें लगे हैं यही कारण है कि दुनियामें अरबपतियोंकी संख्यामें इजाफा हो रहा है। यह विकासका कारक न होकर व्यावसायिक उपनिवेशिक बाजारके विकसित होनेका कारक है। पूंजीकी सभ्यता अपने उपनिवेशवाले देशों उसका कार्य पद्धति व्यक्तिको एक उपभोक्ता बनाकर उसमें निहित विरोध और विद्रोहकी भावनाको सुलाकर आन्दोलनकारी समस्त ऊर्जाको निस्तेज करनेकी क्रिया है। बाजार घरोंमें रिश्तोंमें प्रवेश करने लगा है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यक्तिकी शासनकी निर्यात और नीतिके केन्द्रमें अर्थ आ गया है। सामाजिक सरोकारोंमें बदलाव आये हैं आत्मकेन्द्रीयताने मानवीय सम्बन्धोंको क्षीण किया है। आज असन्तोष असीमिततामें सब कुछ हड़पनेकी हड़बड़ी मची है इसमें उचित-अनुचित, करणी-अनुकरणीयका विवेक ही नहीं रह गया है।