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दिल्ली-NCR के धुएं में किस शहर की है कितनी हिस्सेदारी? सामने आए चौंकाने वाले आंकड़े –


नई दिल्ली। अब कभी एक्यूआइ 100 से नीचे आएगा राष्ट्रीय राजधानी निवासी इसे भूल चुके हैं…. क्या कभी साफ हवा… अच्छी हवा वाला एक्यूआइ मिलेगा?

ये बात उनके लिए दिव्य स्वप्न की तरह हो गई है। सर्दियों के तीन माह में तो मानों ‘खराब’ और ‘बहुत खराब’ एक्यूआइ में रहना उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है। इस अवस्था में एक्यूआइ चढ़ने का एक बड़ा कारण पराली का धुआं भी है।

अनदेखी की आग में पराली जलाने के नियम झुलसते जाते हैं और धुआं तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ता है। अक्टूबर से ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रेप के प्रतिबंध लागू हो जाते हैं।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में धान की पराली जलाने से रोकने को लेकर कुछ वर्षों से लगातार बात होने के बावजूद इसे रोक पाना तो दूर, जलाने के मामलों भी नहीं घटे, बल्कि चार गुना और बढ़ गए।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर दिल्ली सरकार और केंद्र के प्रयासों के बावजूद इसे जलाने पर रोक क्यों नहीं लग पा रही? नियमों की अनदेखी के लिए कौन है जिम्मेदार? पराली जलाने पर रोक के साथ दिल्ली में प्रदूषण के स्थानीय कारकों पर प्रभावी रोक लगाने के लिए क्या किए जाएं ठोस उपाय ? इसी की पड़ताल करना हमारा आज का मुद्दा है।

जल रही पराली, तड़प रही हवा

हवा की सेहत गिरने लगती है, जब पराली का धुआं पड़ोसी राज्यों से दिल्ली में प्रवेश करता है। बीते सप्ताह से शुरू हुआ क्रम अगले तीन माह चलेगा और प्रदूषण नियंत्रण को किए जा रहे प्रयासों को धता बताते हुए हर वर्ष की तरह एक्यूआइ का मीटर चढ़ता दिखाई देगा।

इसके संकेत अभी से इसलिए भी मिलने लगे हैं क्योंकि इस वर्ष अभी से पूर्व वर्षों की अपेक्षाकृत अधिक पराली जलनी शुरू हो गई है। पंजाब और हरियाणा की घटनाएं खुद इसकी बानगी हैं।

प्रदूषण के कारक सामने, कार्रवाई की जरूरत

कमोबेश हर साल अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े के आसपास दिल्ली को एक झटका लगता है और चेतावनियों का दौर शुरू हो जाता है। यह वह समय है जब वायु प्रदूषण अपने उच्चतम स्तर पर होता है।

इसके साथ ही शुरू हो जाती है एक-दूसरे को जिम्मेदार बताने और आरोप-प्रत्यारोप की भी होड़। प्रदूषण के कारण लोगों का दम घुटता है जबकि राजनेता अपनी जिम्मेदारी से भागने के रास्ते खोज करते नजर आते हैं।

पिछले कुछ वर्षों से इस तरह की स्थिति से निपटने के नाम पर दो तरह के कदम उठाए जाते हैं। पहला, दिल्ली सरकार ने एक के बाद एक अध्ययन कराए ताकि प्रदूषण की “असली” वजह का पता लगाई जा सके और जरूरी कदम उठाए जा सकें। दूसरा, उसने इस बात पर जोर दिया कि शहर में प्रदूषण के “बाहरी” कारक भी हैं यानी दूसरी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं।

जाहिर है वे “दूसरी” सरकारें तत्काल इस मामले में इनकार कर देती हैं और इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है। हकीकत यह है कि अब हमें प्रदूषण के स्रोत के बारे में पूरी जानकारी है, भले ही हर क्षेत्र का इसमें योगदान अलग-अलग मौसम में घटता-बढ़ता रहता है। वह है वाहनों, कारखानों, डीजल जेनरेटरों, बिजली संयंत्रों और घरों से उत्पन्न होने वाला उत्सर्जन, सड़क की धूल, भवन निर्माण आदि से होने वाला प्रदूषण आदि। जरूरत इन पर कारगर कार्रवाई करने की है।

गंभीरता से विचार किया जाए तो 2017 में पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) द्वारा तैयार किए गए ग्रेप के केंद्र में मूलतया राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र था। जबकि प्रदूषण की समस्या दिल्ली से लगते एनसीआर के जिलों से भी जुड़ी है। इसीलिए वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) ने पिछले साल नई नीति बना कर इन खामियों को दूर करने का प्रयास किया है।

इस समस्या के स्थायी उपायों में एनसीआर के उद्योगों को कोयले का इस्तेमाल बंद करना ही होगा। जहां प्राकृतिक गैस नहीं है, वहां बायो गैस का इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा नई नीति में छोटे छोटे बायलरों या भट्ठी की जगह एक कामन बायलर लगाने के लिए सिफारिश की गई है। इससे धुंआ कम होगा।

परिवहन सेक्टर में सिर्फ बसें बढ़ाने की नहीं बल्कि सारे सार्वजनिक परिवहन क्षेत्र में सुधार की बात की गई है। विचारणीय पहलू यह भी है कि दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण के स्त्रोत एक नहीं बल्कि अनेक हैं। अब देखिए, दिल्ली का अपना ही प्रदूषण बहुत है। दिल्ली सरकार इससे निपटने के लिए यथासंभव प्रयास कर भी रही है, लेकिन पड़ोसी राज्यों से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होने वाले प्रदूषण का क्या किया जाए! इससे भी व्यापक स्तर की समस्या है मौसम का मिजाज।

दिल्ली एनसीआर का प्रदूषण बढ़ने-घटने में मौसम का बहुत बड़ा रोल रहता है। हवा तेज चलती है और बरसात हो जाती है तो पीक सीजन में भी प्रदूषण थम जाता है। लेकिन हवा की दिशा यदि उत्तर पश्चिमी हो जाए और उसकी गति भी मंद पड़ जाए तो फिर प्रदूषण तेजी से बढ़ने लगता है। चिंता की बात यह कि मौसम पर किसी का जोर नहीं चल सकता।

प्रदूषण से जंग में जनसहयोग भी बहुत महत्वपूर्ण है। जन जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। जितनी जन जागरूकता बढ़ेगी, उतना ही सभी का सहयोग मिलेगा और सभी के सहयोग से स्थिति अवश्य ही बदलेगी। इसके अलावा वायु प्रदूषण से जंग में दिल्ली एनसीआर की एकीकृत कार्ययोजना बननी चाहिए। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की अवधारणा भी यही है।

खुले में आग जलनी बंद हो, कोयले का उपयोग प्रतिबंधित हो। अगर एक जगह कुछ गतिविधियों पर रोक है और दूसरी जगह वो सभी चल रही हैं तो फिर उसके अपेक्षित परिणाम आ ही नहीं पाएंगे।

अगर इस पर अमल हो पाया तो निश्चित रूप से तस्वीर बदलेगी। बता दें कि यह जानकारी दैनिक जागरण के संवाददाता संजीव गुप्ता की आइआइटी कानपुर में इंजीनियरिंग विभागाध्यक्ष प्रो. एस. एन. त्रिपाठी सिविल से बातचीत पर आधारित है।

दिल्‍ली सरकार के प्रयास :

  • तीन साल से दिल्‍ली सरकार खेतों में बायो डिकंपोजर घोल का करा रही छिडकाव।
  • घोल से कृषि अवशेष गल कर जमीन में ही मिल जाते हैं, इससे जमीन की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ती है।
  • अन्य राज्यों में यह घटनाएं रोकने के लिए दिल्ली सरकार समय-समय पर हरियाणा एवं पंजाब सरकार को पत्र लिखती रही है तो केंद्रीय पर्यावरण मंत्री के साथ होने वाली बैठकों में भी यह मुद्दा उठाती रही है।

केद्र सरकार की कोशिशें

  • वर्ष 2018-19 में सब्सिडी के साथ आवश्यक मशीनरी उपलब्ध कराने की व्‍यवस्‍था।
  • 50 % किसानों को मूल्य दर से वित्तीय सहायता।
  • 80% किसानों, पीएफओ और पंचायतों की सहकारी समितियों को फसल अवशेष प्रबंधन मशीनों के कस्टम हायरिंग केंद्रों की स्थापना के लिए उपलब्‍ध कराना।

2018-19 से 2021-22 तक 2440.07 करोड़ रुपये जारी किए

पंजाब 1,147.62
हरियाणा 693.25
उत्तर प्रदेश 533.67
दिल्ली 4.52
आइसीएआर और अन्य केंद्रीय एजेंसियां 61.01

(नोट : करोड़ रुपये)

राज्‍यों ने बनाए कस्‍टम हायरिंग सेंटर

पंजाब 24,201
हरियाणा 6,775
उत्तर प्रदेश 7,446

फसल अवशेष प्रबंधन मशीन

पंजाब 89,151
हरियाणा 59,107
उत्‍तर प्रदेश 58,708
दिल्ली 247