सम्पादकीय

भारतीय नेतृत्वका तुष्टीकरण नीति


 डा. समन्वय नंद

अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवसके एक दिन पूर्व फिलिस्तीनके आंतकी संघटन हमासकी ओरसे इसराइलपर हमला हुआ और इसमें वहां कार्य कर रही केरलकी एक नर्स सौम्या संतोषकी मौत हो गयी। इस हृदयविदारक घटनाके बाद केरलके एक कांग्रेस महिला नेता बीणा नायारने इस घटना एवं आतंकी गतिविधियोंकी निंदा कर सोशल मीडियापर एक पोस्ट किया था। इसके बाद केरल एवं अन्य राज्योंके इस्लामिस्टोंने उनपर सोशल मीडियाके माध्यमसे हमला शुरू कर दिया। इससे बीणा दबावमें आकर उस पोस्टको डिलीट करनेके साथ क्षमायाचना की। आतंकवादी घटनाकी निन्दा करना एवं पीडि़तके प्रति संवेदना व्यक्त करना मानवीय कर्तव्य है। लेकिन ऐसी क्या परिस्थिति उत्पन्न हुई कि कांग्रेस महिला नेताको आतंकवादियोंको खुलेआम समर्थन करनेवाले लोगोंके आगे झुकना पड़ा। इतना ही नहीं, केरलके एक अन्य विधायकको भी इस तरहके पोस्टसे इस्लामी शक्तियोंके हमलेको झेलना पड़ा। इस घटनाके बाद केरलके वामपंथी मुख्य मंत्री और प्रतिपक्ष कांग्रेसके नेताकी ओरसे भी संवेदना एवं आतंकवादकी निंदाके शब्द नहीं निकले।

सवाल है कि ऐसा हो क्यों रहा है। आतंकवादके खिलाफ बोलना क्या अपराध है। आतंकवाद एवं आतंकवादियोंको कठघरेमें खड़ा करना क्या अपराध है। इस प्रश्नके उत्तरके साथ भारत एवं इसरायलके कूटनीतिक संबंधकी कहानी जुड़ी हुई है। भारतके राजनीतिक पार्टियां किस ढंगसे तुष्टीकरणकी राजनीति करती हैं इसके अनेक उदाहरण हैं। इसरायल भारतका प्राकृतिक रूपसे मित्र राष्ट्र है। भारत भी आतंकवादका सामना करता रहा है तथा इसरायल भी सामना कर रहा है। इसरायल भारतके हर कठिन परिस्थितिमें साथ खड़ा रहता रहा है। लेकिन भारतीय नेतृत्व कभी भी इसरायलके साथ खड़ा नहीं होता है। क्योंकि भारतीय नेतृत्वको लगता है कि इसरायलके साथ खड़ा होनेपर भारतीय मुसलमान नाराज हो जायगा एवं उनका वोट बैंक समाप्त हो जायगा। अपने वोट बैंककी सुरक्षाके लिए वह तुष्टीकरणके चलते इसरायलके साथ खड़े नहीं होते हैं। जबकि भारतीय नेतृत्वको भली-भांति पता है कि इसरायल भारतका प्राकृतिक मित्र है। फिलस्तीनका आतंकवादी संघटन हमास जब भी इसरायलपर हमला करता है इसरायल उसका जोरदार जवाब देता है। तह फिलिस्तीनके हमास संघटन पीडि़त होनेका रोना रोने लगता है। तब भारतीय नेतृत्व हमास एवं फिलस्तीनके समर्थनमें सड़कपर नारेबाजी करते देखे जाते हैं।

भारतीय राजनीतिक पार्टियां अपने वोट बैंकके लिए कितना तुष्टीकरण करते हैं उसका एक उदाहरण है कि १९९० तक भारत एवं इसरायलके बीच आधिकारिक कूटनीतिक संबंध नहीं थे। १९९० में जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री बने तब उन्होंने भारत एवं इसरायलके बीच कूटनीतिक संबध शुरू किया। पीवी नरसिह्मïारावको इसके लिए धन्यवाद देना पड़ेगा कि वह वोट बैंककी राजनीतिसे ऊपर उठकर यह कार्य किया। हालांकि यह दूसरी बात है कि वह स्वयं इसरायलके दौरेपर नहीं जा पाये। अटल बिहारी बाजपेयीके शासन कालमें लालकृष्ण आडवाणी पहली बार भारतके मंत्रीके तौरपर इसरायलका दौरा किया था। पंडित नेहरूके शासनकालसे ही भारतका व्यवहार इसरायलके प्रति अच्छा नहीं था। भारत सरकार एवं कांग्रेस इसरायलके प्रति अस्पृश्य जैसा व्यवहार करते थे। मुंबईमें स्वतंत्रतासे पूर्व यहुदियोंके एजेंसीका आफिस था। तत्कालीन भारत सरकारने इसे कनसलका मान्यता तो दिया था लेकिन दिल्लीमें आयोजित होनेवाले सभी कूटनीतिक कार्यक्रमोंमें इसे दूर रखा जाता था। १९६६ में इसरायलके तत्कालीन राष्ट्रपति जलमान साजारने नेपाल जाते समय भारतमें उनके विमानके ईंधन भरने तथा विश्रामके लिए अनुमति मांगी थी। लेकिन भारत सरकारने दिल्लीमें उन्हें लैंड करनेकी अनुमति नहीं दी, बल्कि उन्हें कोलकातामें लैंड करानेके लिए कहा। साथ ही उनके स्वागतमें भारत सरकारका कोई प्रतिनिधि नहीं गया था। निकोलास ब्लारेलने अपनी पुस्तक द इवोल्युशल इंडियाज इसरायल पालिसीमें उपरोक्त बातोंका उल्लेख किया है। लेकिन इसरायलने भारतको हर कठिन परिस्थितियोंमें साथ दिया। १९६२, १९६५ के युद्ध हो या फिर १९७१ के युद्ध हो इसरायल भारतके साथ था और आवश्य सहायता की। कोरोना महामारीके समय भी इसरायल अपना मित्र धर्म निभाते हम देख रहे है। लेकिन भारतमें तुष्टीकरण करनेवाली राजनीतिक पार्टिया इसरायलके विरोधमें खडी है। आन्दोलनजीवी भी सोशल मीडियामें इसरायलके खिलाफ माहौल बनानेमें व्यस्त हैं। हमें याद रखना चाहिए कि इसरायल आतंकवादका शिकार होनेवाला देश है। यदि वह आतंकवादको नहीं कुतरेगा तो उसका अस्तित्व समाप्त हो जायगा। अत: हमासके हमलेका जवाब देनेका इसरायलके पास पूरा अधिकार है। इसलिए तुष्टीकरणकी राजनीतिसे ऊपर उठकर भारतको इसरायलके साथ खड़े होनेकी आवश्यकता है।