सम्पादकीय

सद्गुरुका ज्ञान


बाबा हरदेव

शक नहीं कि निरकार प्रभु परमात्माका ज्ञान सदगुरुसे प्राप्त हो जाता है, लेकिन फिर इसको हम आंखोंसे ओझल कर देते हैं। इस ज्ञानकी संभाल तभी है जब हम इस ज्ञानको बीज रूप मानें। धरतीमें हम जब बीज डालते हैं तो बादमें खाद पानी इत्यादि देते हैं। तभी बड़ा वृक्ष बनता है। फल-फूल लगते हैं। वही हमें छाया देने लग जाता है। वह इतना मजबूत हो जाता है कि बड़ेसे बड़े हाथीको भी हम उसके साथ बांध दें तो वह टससे मस नहीं होता। ज्ञानकी दृढ़ता भी तब होती है, जब इस निराकारको हृदयमें बसकर प्रत्येक व्यक्तिमें इसका दर्शन करके हर एकका सत्कार करते हैं और सद्ïमार्गमें इस्तेमाल करते हैं। निराकार परमात्माके साथ जिसका नाता जुड़ जाता है, उसकी आंखें संसारका दृश्य तो देखतीं हैं, लेकिन निश्चय इस एकके ऊपर ही होता है। मनको इसी निशानेपर लगाना है। द्रोणाचार्यने एक काठकी चिडिय़ा पेड़पर रखी थी कि इसपर निशाना लगाना है। इससे शिष्यसे पूछा जाता कि वह क्या देख रहा है। वह कहता है, आसमान नजर आ रहा है, पेड़ नजर आ रहे हैं, पहाड़ नजर आ रहे हैं। पेड़पर उसकी डालियां हैं, ऊपर चिडिय़ा बैठी है। यह कहकर निशाना लगाता है तो चूक जाता है। फिर दूसरेसे पूछा जाता। सभी चूकते गये। चौथे यानी अर्जुनकी बारी आयी। उससे पूछा गया कि आपको क्या नजर आ रहा है। कहने लगा कि मुझे चिडिय़ाकी सिर्फ  आंख नजर आ रही है। नतीजा निशाना सीधा आंखपर जाकर लगा। कहनेका भाव यह नहीं कि जो दृश्य बाकीके लोगोंने बयान किया, उसकी आंखें वह दृश्य नहीं देख रही थीं या उसने कोई ऐसा चश्मा चढ़ा रखा था, जिसके बड़े शीशे थे या लैंस था, जिसके कारण उसका स्वरूप बढ़ गया कि बाकी कुछ नजर आना बंद हो गया और केवल आंख नजर आ रही थी, ऐसा नहीं था। चारोंकी आंख वही कुछ देख रही थी, एक जैसा ही देख रही थी, लेकिन जिसने आंखके ऊपर मन एकाग्र किया, वही वास्तवमें कहता है मुझे आंख ही नजर आ रही है। उसीने कामयाबी प्राप्त की, वह लक्ष्य प्राप्त किया इस तरह गुरमुख महापुरुष, संत जो होते हैं, वह भी इस एक निराकार परमात्माके ऊपर ही निर्भर होते हैं। इसीकी तरफ ध्यान रखते हैं। इसीका आसरा लेते हैं और संसारको मिथ्या जानकर निर्लिप्त रहते हैं।