सम्पादकीय

समान नागरिक संहिता समयकी मांग


आशीष वशिष्ठ

समान नागरिक संहिताका मतलब धर्म और वर्ग आदिसे ऊपर उठकर पूरे देशमें एक समान कानून लागू करनेसे होता है। समान नागरिक संहिता लागू होनेसे पूरे देशमें शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक समान कानूनके अंतर्गत आ जाते हैं। इसमें धर्मके आधारपर कोई अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था नहीं होती। समान नागरिक संहिताका विरोध करनेवालोंका कहना है कि यह सभी धर्मोंपर हिन्दू कानूनको लागू करने जैसा है। भारतीय संविधानका अनुच्छेद २५, जो किसी भी धर्मको मानने और प्रचारकी स्वतंत्रताको संरक्षित करता है, भारतीय संविधानके अनुच्छेद १४ में निहित समानताकी अवधारणाके विरुद्ध है। वहीं सेक्युलर देशमें पर्सनल लॉमें दखलंदाजी नहीं होना चाहिए। समान नागरिक संहिता बने तो धार्मिक स्वतंत्रताका ध्यान रखा जाय। दुनियाके तमाम देशों अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बंगलादेश, मलयेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट, जैसे कई देश हैं, जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है। इनमेंसे कुछ देशोंकी समान नागरिक संहितासे तमाम मानवाधिकार संघटन सहमत नहीं हैं।

इतिहासमें झांके तो वर्ष १७२२ में भारतमें ब्रिटिश हुकूमतके गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्सने न्यायिक सुधारोंकी शुरुआत की और शादी-निकाह, उत्तराधिकार और अन्य धार्मिक मामलोंमें आदेश जारी किया था। १९४७ में भारत स्वतंत्र राष्टï्र बना तो उसके प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू और प्रथम कानूनमंत्री डा. भीमराव अंबेडकरने समान नागरिक संहिता लागू करनेकी कोशिशें कीं। उससे पहले संविधान सभामें इस मुद्देपर बहसोंके दौरान अंबेडकरको उग्र विरोध झेलना पड़ा था। समान नागरिक संहिताके विरोधियोंने संविधानके अनुच्छेद २५ के तहत धार्मिक आजादीके अधिकारका उल्लंघन करार दिया, जबकि संहिताके पक्षधर अनुच्छेद १४-१५ के तहत नागरिकोंकी समानताके अधिकारका हवाला दे रहे थे। विवादकी स्थितिमें तब अनुच्छेद ४४ के तहत नीति-निर्देशक तत्वोंमें इसे भी रख दिया गया। राज्यकी सत्ताको अधिकार दिया गया कि वह समान नागरिक संहिता लागू करेगी। तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू हिंदू कोड बिलतक ही सीमित रहे और उसे लागू कराया। उसकी परिधिमें सिख, जैन, बौद्ध आदिको भी रखा गया। नतीजा यह हुआ कि देशमें द्विपत्नी और बहुपत्नी सरीखी कुप्रथाओंको समाप्त किया जा सका।  १९८५ के एक विशेष केसके जरिये सर्वोच्च न्यायालयने संहिताका मामला उठाया। उसके बाद कई संदर्भोंमें समान नागरिक संहिता लागू करनेका आग्रह करता रहा। २०१६ में राष्टï्रीय विधि आयोगने भी एक मसविदा जारी किया। अंतत: उसके निष्कर्ष क्या रहे, इसकी पुष्टï जानकारी आजतक नहीं है।

राजनीतिक तौरपर समान नागरिक संहिताका मुद्दा आरएसएस और जनसंघके अहम मुद्दोंमें शामिल रहा है। यह दीगर है कि इस मुद्देपर उन्हें पर्याप्त जनमतका समर्थन नहीं मिला अथवा उन्होंने शिद्दतसे जन-समर्थन जुटानेकी कोशिशें ही नहीं कीं। अब दिल्ली उच्च न्यायालयकी न्यायाधीश प्रतिभा एम. सिंहकी टिप्पणीके बाद एक बार फिर यह मुद्दा गरमा उठा है। सवाल हिंदू और मुसलमानका धार्मिक आजादीका नहीं है, बल्कि बुनियादी सरोकार यह है कि एक संप्रभु राष्टï्रमें, एक ही समान कानूनकी व्यवस्था क्यों नहीं है? अलग-अलग धर्मों, जातियों, संप्रदायोंसे लेकर कबीलोंतक अपने-अपने ‘पर्सनल लॉÓ हैं। क्या यही भारतकी ‘अनेकतामें एकताÓ की संवैधानिक स्थिति है? न्यायाधीशका मानना है कि आधुनिक भारतीय समाज एकरूप होता जा रहा है। धर्म, जाति और समुदायके पारंपरिक अवरोध समाप्त हो रहे हैं। समाजमें तेजीसे हो रहे बदलावकी वजहसे अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाह या तलाकमें परेशानियां हो रही हैं। युवा पीढ़ीको इन दिक्कतोंका सामना न करना पड़े, लिहाजा समान नागरिक संहिताका होना जरूरी है। न्यायाधीशने यह भी कहा कि फैसलेकी प्रति केंद्रीय कानून मंत्रालयको भेजी जाय, ताकि वह विचार कर सके। समान नागरिक संहिता लागू करनेका यह सबसे माकूल वक्त है। एक अहम विषय सरकार और संसदके सामने पेश किया गया है। उसे ‘धार्मिक आजादीÓ के लबादेमें वे ही विरोध कर रहे हैं, जो कानूनन चार पत्नियां रख सकते हैंं। यदि एक देश और एक ही राशन कार्ड और चुनावके विमर्श चल सकते हैं और वह कानूनी व्यवस्था भी बन सकती है तो सभी नागरिकों, धार्मिक-मजहबी समुदायोंके लिए एक ही कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता?

सवाल यह भी है कि आखिरकार समान नागरिक संहिताकी जरूरत क्या है। विषय विशेषज्ञोंकी रायमें अलग-अलग धर्मोंके अलग कानूनसे न्यायपालिकापर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होनेसे इस परेशानीसे निजात मिलेगी और अदालतोंमें वर्षोंसे लंबित पड़े मामलोंके फैसले जल्द होंगे। शादी, तलाक, गोद लेना और जायदादके बंटवारेमें सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वह किसी भी धर्मका क्यों न हो। वर्तमानमें हर धर्मके लोग इन मामलोंका निबटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनोंके तहत करते हैं। समान नागरिक संहिताकी अवधारणा है कि इससे सभीके लिए कानूनमें एक समानतासे राष्टï्रीय एकता मजबूत होगी। देशमें हर भारतीयपर एक समान कानून लागू होनेसे देशकी राजनीतिमें भी सुधारकी उम्मीद है। समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार समेत विभिन्न मुद्दोंसे संबंधित जटिल कानूनोंको सरल बनायगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकोंपर लागू होंगे।

यदि समान नागरिक संहिताको लागू किया जाता है तो वर्तमानमें मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जायंगे, जिससे उन कानूनोंमें मौजूद लैंगिक पक्षपातकी समस्यासे भी निबटा जा सकेगा। समान नागरिक संहिताका उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गोंको सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपतासे देशमें राष्टï्रवादी भावनाको भी बल मिलेगा। वहीं भारतीय संविधानकी प्रस्तावनामें ‘धर्मनिरपेक्षÓ शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्यको धार्मिक प्रथाओंके आधारपर विभेदित नियमोंके बजाय सभी नागरिकोंके लिए एक समान कानून बनाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि देशका संचालन संविधानसे ही होगा। तीन तलाकके खिलाफ भी संसदने बिल पारित कर कानून बनाया है। एक सड़ी-गली परंपरा खत्म हुई है और औरतका शोषण भी लगभग समाप्त हो रहा है, क्योंकि तीन तलाक कहनेवाला अब ‘अपराधीÓ होगा। फिलहाल यह सांस्कृतिक और संवैधानिक बदलाव कोई न्यायाधीश तो कर नहीं सकता, वह सुझावके जरिये आग्रह कर सकता है, कानून या संवैधानिक संशोधन तो संसदको करना है। अब इस विषयपर राष्टï्रीय स्तरपर विमर्श करके एक साझा निर्णायक निष्कर्षतक पहुंचना ही चाहिए।