सम्पादकीय

विश्वास खोते किसान

कमलेश कमल तमाम लिखित-अलिखित सरकारी आश्वासनोंके बीच लगभग महीनेभरसे जारी किसान आंदोलन छठे दौरकी वार्ताके बाद भी मंद पड़ रहा। शुरूमें किसान संघटनोंने सरकारके दावोंके जवाबमें इतनी ही मांग रखी थी कि वह यदि सचमुच न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को समाप्त नहीं करना चाहती है तो बस कानूनमें एक पैरा जोड़ दे कि एमएसपीके नीचे […]

सम्पादकीय

आत्मबलपर कृत्रिम सफलताका दंश

दनेश ‘शैलेश’ संघर्षकी सीढिय़ां चढ़कर सफलताके दुर्गपर आसीन होना सबको अच्छा नहीं लगता है। लेकिन जब आप किसीके द्वारा बलात उठाये जानेपर किसी मंच विशेषपर आरूढ़ होते हैं तो वह सफलता आपको भीतरसे न केवल कचोटती है, बल्कि गहन अपराधबोधका भी शिकार बना देती है। लेकिन इसके दूसरी ओर परिश्रम, निष्ठा, ईमानदारी एवं समर्पणके आधारपर […]

सम्पादकीय

गीता जयंती

अशोक ‘प्रवृद्ध’ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्षकी एकादशीको मोक्षदा एकादशी कहा जाता है। इसी दिन द्वापर युगमें भगवान श्रीकृष्णने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया था। इसी कारण मोक्षदा एकादशीके दिनको गीता जयंतीके नामसे भी जाना जाता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्णके मुखसे गीताका जन्म कुरुक्षेत्रमें हुआ था। भगवानने युद्धसे विचलित अर्जुनको उपदेश दिये वह श्रीमद्भगवद गीताके नामसे […]

सम्पादकीय

किसानोंसे वार्ताकी उम्मीद

पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंहकी जयन्तीपर बुधवारको आन्दोलनकारी किसानोंने प्रदर्शनके २८वें दिन उपवास भी रखा। नये कृषि कानूनोंके खिलाफ देशभरमें एक समयका खाना नहीं खानेकी अपीलका कुछ प्रभाव तो अवश्य देखनेको मिला और आन्दोलनको तेज धार देनेकी रणनीति भी बनी लेकिन एक अच्छा संकेत यह भी मिला कि आन्दोलनकारी किसान संघटन अब सरकारसे वार्ता […]

सम्पादकीय

विद्वेषपूर्ण राजनीतिमें उलझा बंगाल

राजेश माहेश्वरी जो दृश्य इस समय बंगालमें है उससे प्रतीत होता है कि इस बार पश्चिम बंगालका चुनाव रोमांचक और आक्रामक होगा। वर्तमान विधानसभामें तृणमूलके २११ और भाजपाके मात्र तीन विधायक हैं। ममता बनर्जी लगभग एक दशकसे ही मुख्य मंत्री हैं, लिहाजा कुछ स्तरोंपर सत्ता-विरोधी लहर और रूझान दृष्टिïगोचर हो रहा है। फिर भी ममता […]

सम्पादकीय

ओलीके विरुद्ध जनतंत्र

विष्णुगुप्त नेपाल प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओलीके खिलाफ जनआन्दोलनसे उनकी पाटीमें ही बगावतकी स्थिति थी। ओली एक ऐसे अध्यादेशको राष्टरपतिसे स्वीकृति दिलायी थी जो लोकतंत्र विरोधी था इस विधेयकके द्वारा ओलीको ऐसा अधिकार मिल गया था जिससे संवैधानिक पदोंपर अपनी इच्छानुसार मोहरोंका पदास्थापन कर सकें। उनकी पार्टी और विपक्ष एक स्वरमें उक्त अध्यादेशकी वापसीकी मांग कर […]

सम्पादकीय

किसान आन्दोलनकी भटकती राह

ऋतुपर्ण दवे क्या किसान मजबूर है और खेती मजबूरी। यह प्रश्न बहुत ही अहम हो गया है। अब लग रहा है कि किसानोंकी स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरीÓ जैसे हो गयी है। बदले हुए परिवेश यानी सामाजिक एवं राजनीतिक दोनोंमें किसानोंकी हैसियत और रुतबा घटा है। किसान अन्नदाता जरूर है लेकिन उसकी पीड़ा बहुत गहरी […]

सम्पादकीय

जीवनका दृष्टिकोण

सदानन्द शास्त्री सनातन धर्मके विभिन्न ग्रंथोंमें अनेक रहस्य छिपे हैं। भविष्यका दूसरा नाम है संघर्ष, हृदयमें आज इच्छा होती है और यदि पूर्ण नहीं होती तो हृदय भविष्यकी योजना बनानेमें लग जाता है भविष्यमें इच्छा पूरी होगी ऐसी कल्पना करता रहता है किंतु जीवन न तो भविष्यमें न तो अतीतमें है जीवन तो इस क्षणका […]

सम्पादकीय

सतत सतर्कता जरूरी

कोरोनाके नये रूपसे पूरे विश्वमें चिन्ता और भयकी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, क्योंकि इसकी मारक क्षमता पहलेकी तुलनामें ७० प्रतिशत अधिक है। अबतक ब्रिटेन सहित पांच देशों डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, नीदरलैण्ड और इटलीमें यह पहुंच चुका है। भारतमें अभी कोरोनाका नया रूप प्रवेश नहीं कर सका है लेकिन लोगोंमें चिन्ता अवश्य बढ़ गयी है। भारत […]

सम्पादकीय

नये कानूनसे लाभान्वित किसान

निरंकार सिंह कृषि सुधारके विरोधमें दिल्लीके आसपास डेरा डालनेवाले किसान भी कांग्रेस शासित पंजाब और राजस्थानके ही ज्यादा हैं जो पूरे देशके किसानोंके ठेकेदार बनकर इन कानूनोंकी वापसी मांग कर रहे हैं। लेकिन देशमें आज भी कोई ऐसा किसान संघटन नहीं है जो पूरे देशके किसानोंकी रहनुमाई करता हो। देशकी ६५ फीसदीसे अधिक आबादी आज […]